Monday, September 21, 2015

आत्मकल्याण के लिए उपयुक्त जीवन शैली श्रावकाचार : जैन जीवनशैली

आत्मकल्याण के लिए उपयुक्त जीवन शैली श्रावकाचार : जैन जीवनशैली 

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

इस आलेख का कथ्य –

जैन श्रावकों को अपने इस जीवन में मात्र इसी जीवन के भरणपोषण का कार्य नहीं करना है वरन अनादिअनन्त इस आत्मा के अनंतकाल तक केलिए सुखी होने का उपक्रम भी इसी जीवन में करना है.
वे लोग जो आत्मा की स्वतंत्र सत्ता और उसकी अनादिअनन्तता को स्वीकार नहीं करते हें उनके लिए तो इस जीवन में अन्य कोई लक्ष्य है ही नहीं, शिवाय इसके कि किसी भी प्रकार यह जीवन सुखसुविधा पूर्वक व्यतीत हो जाए, बस इसीलिये वे तो जीवनभर, दिनरात मात्र अनुकूल संयोग और प्रचुर भोगसामग्री जुटाने और भोगने में व्यस्त रहते हें.
यह तो हम जानते हें कि हमारी तत्कालीन आवश्यकताओं और त्रैकालिक हितों में मूलभूत अंतर होता है.
आपही विचार करिए कि एक तत्कालीन हितों के अभिलाषी और एक अपने त्रैकालिक अविनाशी कल्याण की भावना वाले साधक की जीवनशैली एक सामान कैसे हो सकती है? उसमें मूलभूत अंतर होना ही चाहिए.

इसी आलेख से -


- "जैन सिद्धान्त के अनुसार हमारा यह संसारप्रवास मात्र कारागार ही तो है जहां हम अपने स्वरूप को भूलने की सजा भोग रहे हें. 
ऐसे में हमें यहाँ सुविधापूर्वक टिके रहने के प्रयास करने चाहिए या इससे छूटने के उपक्रम करने चाहिए ? 
क्या स्थायीतौर पर रहने की और अपनी यात्रा के दौरान थोड़े से समय के 
अस्थायी पड़ाव की जीवनशैली एक जैसी हो सकती है?
नहीं न!"






जैनदर्शन और अन्य दर्शनों में एक बहुत बड़ा अंतर यह है कि अन्य दर्शनों में भगवान् अलग होते हें और उनके वन्दे अलग.
उनके अनुसार भगवान् सदा से भगवान थे और सदा भगवान् रहेंगे भी व सामान्य संसारीजीव सदा संसारी ही रहेंगे.  
संसारी जीव अपने भले-बुरे के लिए सदा भगवान् की कृपा पर ही निर्भर रहेंगे. 
भगवान् संसारी लोगों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुरूप उन्हें फल प्रदान करेंगे और समय-समय पर यदि भगवद्क्रपा मिल जाए तो इसका अपवाद भी संभव है. संभव है कि आपके दुष्कर्म माफ़ करदिये जाएँ और आपको शुभ फल ही मिले.
यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि कोई संसारी जीव शुभकर्म करे या अशुभकर्म, इसका नियंता कौन है?
यदि वह जीव स्वयं है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसपर पूरी तरह भगवान् का नियंत्रण नहीं है. तब भगवान् सर्वशक्तिमान कैसे हुआ, जगत पर उसका सम्पूर्ण नियंत्रण कहाँ रहा?
यदि यह सब (संसारी जीवों के शुभ-अशुभ कर्म) भगवान् ही करबाते हें तो फिर उन दुष्कर्मों का दुष्फल उन भोले, विवश संसारियों को क्यों?
यह तो अन्याय हुआ न कि पहिले वही दुष्कर्म करबाए और फिर वही उन्हीं दुष्कर्मों के लिए दण्डित भी करे.
यह तो ऐसे हुआ कि “चोर से कहे चोरी कर और कोतवाल से कहे दंड दे.”
यदि कोई सर्वशक्तिमान भगवान् जगत का कर्ता-धर्ता है तो ऐसी अनीति तो संभव है नहीं.
खैर --------
हमें बात तो दूसरी करने थी.

जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा शक्तिरूप से परमात्मा है और अपना स्वरूप पहिचानकर उसीमें स्थित होकर पर्याय (वर्तमान) में भी परमात्मा बन सकता है.
जो आज परमात्मा हैं वेभी पहिले हमारे सामान ही संसारी थे जो कि उक्त विधि से ही परमात्मा बने हें.
यहाँ प्रत्येक आत्मा अपनेआप में (स्वयं के लिए) सर्वशक्तिमान है, सर्वगुण और वैभव सम्पन्न है पर परके लिए वह कुछ नहीं. उसका अन्य द्रव्यों (जीव-पुद्गलों इत्यादि) पर कोई नियंत्रण नहीं. इसीप्रकार किसी परद्रव्य का हममें भी कोई दखल नहीं, उनका व हमारा परिणमन स्वतन्त्र है, कोई किसी के आधीन नहीं.

इस प्रकार निष्कर्ष यह है कि जहां अन्य दर्शनों में संसारी जीवों के सामने अन्य कोई लक्ष्य नहीं है, शिवाय इसके कि प्रभुकृपा से उनका यह जीवन भौतिक सुख-शान्ति पूर्वक, अनुकूल संयोगों के बीच वैभवशाली शैली में व्यतीत होजाए.
यदि वे यह करपाए तो उनका यह जीवन सफल होगया अन्यथा निष्फल गया, बस! इसलिये उनके लिए तो यही उचित है कि जीवनभर धंधे-व्यापार में सक्रिय बने रहकर अधिकतम धनोपार्जन करें और उसका उपभोग करें, उपयुक्त उपयोग करें. कथित रूपसे सुखी जीवन व्यतीत करें और अंतत: ब्रहम्मलीन हो जाएँ.
उक्त के विपरीत जैन श्रावक यदि आत्मा से परमात्मा नहीं बन सके या परमात्मा बनने के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सके तो उनका जीवन सामान रूपसे निष्फल ही है, फिर चाहे वह चक्रवर्ती के वैभव के बीच लौकिक रूपसे (भौतिक रूप से) अत्यंत सफल रहकर बीते या किसी भी प्रकार की लौकिक उपलब्धि रहित, दरिद्री रहकर बीते. दोनों ही प्रकार के जीवन में कोई फर्क नहीं है क्योंकि अंतत: वह रहा तो संसार का संसार में ही, मुक्त तो हुआ नहीं.
रहा तो पामर ही, परमात्मा तो बना नहीं.
चाहे वैभवशाली रहे या दरिद्री, रहा तो संसार में ही न! मुक्त तो हुआ नहीं. 
कैद प्रथम श्रेणी की हो या तृतीय श्रेणी की, हथकड़ी सोने की हो या लोहे की दोनों बंधन ही हें, स्वतंत्रता के सामने दोनों एक जैसे ही हें, बंधन ही हें, त्यागने योग्य ही हें.
जैन श्रावक के जीवन की सफलता की एकमात्र कसौटी, एकमात्र लक्ष्य परमात्मा बनना है अन्य कुछ नहीं.

उक्त तथ्य जानलेने के बाद, समझ में आने के बाद, स्वीकृत होने के बाद यह कैसे संभव है कि जैन और जैनेतर लोगों की जीवनशैली एक जैसी ही हो, क्रियाकलाप एक जैसे ही बने रहें?

जब दोनों के लक्ष्य ही अलग-अलग हें तो उन्हें प्राप्त करने की प्रक्रिया एकजैसी कैसे हो सकती है. तब उन दोनों का नित्यक्रम और जीवनशैली एकजैसी कैसे हो सकती है, दोनों के क्रियाकलाप सामान कैसे हो सकते हें? उनमें तो आमूल अन्तर होना ही चाहिए, दोनों का जीवनक्रम एकदम भिन्न ही होना चाहिए.  

जैनेतर लोगों के लिए तो यही योग्य है कि वे दिनरात इस जीवन को वैभवशाली बनाने में रचेपचे रहें, भोग भोगने में ही लीन रहें, यदि अन्य लोगों का भलाबुरा करने के मामले में ईश्वर का ही एकाधिकार न हो तो अपना समय उनकी (अन्य लोगों की) भलाई के कामों में व्यतीत करें, नाम और पुन्य कमायें. शेष समय अपने किये दुष्कर्मों का दुष्फल भोगने से बचने के लिए तथा शुभकर्मों का सुफल पाने के लिए प्रभुकृपा पाने की प्रक्रियास्वरूप उनकी भक्ति-पूजा में अर्पण करदें.
इतना सब करलेने पर उनके कर्तव्यों की तो इतिश्री हो जाती है.

उक्त के विपरीत जैन लोग ऐसा कैसे कर सकते हें?
यदि वे यही सब करने में ही उलझे रहेंगे तो संसार के संसारमें ही बने रहेंगे, दुखी ही बने रहेंगे क्योंकि संसार में तो सुख है ही नहीं, संसार के सुखाभास तो दुखों के ही अन्य प्रकार हें, प्रकारान्तर हें, उनमें तो उनकी दिलचस्पी हो नहीं सकती है, होनी ही नहीं चाहिए. तब वे परमात्मा बनने और अनन्त सुखी होने का उपक्रम कब और कैसे करेंगे

जिसप्रकार अपने घर की स्थायी जीवनशैली भिन्न होती है और किसी कार्यवश बाहर जाने पर कुछ ही दिनों के लिए सराय (hotel) में ठहरने की अलग.
अपने घर में हम अपने लिए स्थायी तौर पर सभी प्रकार की सुविधाएं जुटाते हें पर जब बाहर जाने पर होटल में ठहरते हें तो वहां उस तरह की व्यवस्थाओं में उलझकर शक्ति,श्रम और समय बर्बाद नहीं करते हें. वहांतो कमसेकम साधनों की मदद से अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करके, अपना काम निपटाकर जल्दी से जल्दी अपने घर लौट जाना चाहते हें.
जैन मान्यता के अनुसार हमारा यह मानवजीवन, यह संसार हमारा अंतिम लक्ष्य नहीं है, यह हमारा स्थायी आवास भी नहीं है. यहाँ तो हम अपने मोक्ष पाने के लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए कुछ दिनों के सराय के आवास (hotel stay) की तरह रुके हुए हें. ऐसी अवस्था में हम अन्य लोगों की ही तरह यहाँ की व्यवस्थाओं में ही अपना सम्पूर्ण समय और शक्तियों को कैसे झोंक सकते हें? हमें तो  अपना आत्मकल्याण का उपक्रम करके जल्दी से जल्दी यहाँ से आगे बढजाने का लक्ष्य रखना होगा.
कल्पना कीजिये कि हम अपने घर में भी नहीं हों और होटल में भी नहीं; किसी संयोगवश कारावास में ही रह रहे हों, तो हम क्या करेंगे ?
क्या वहां भी इसी प्रकार दीर्घावधि योजनायें बनाने लगेंगे, व्यवस्थाएं जुटाने में व्यस्त हो जायेंगे, या शीघ्रातिशीघ्र वहां से छूटने का उपक्रम करेंगे ?


जैन सिद्धान्त के अनुसार हमारा यह संसारप्रवास मात्र कारागार ही तो है , जहां हम अपने स्वरूप को भूलने की सजा भोग रहे हें. 

ऐसे में हमें यहाँ सुविधापूर्वक टिके रहने के प्रयास करने चाहिए या इससे छूटने के उपक्रम करने चाहिए

क्या स्थायीतौर पर रहने की और अपनी यात्रा के दौरान थोड़े से समय के अस्थायी पड़ाव की जीवनशैली एक जैसी हो सकती है?
नहीं न!"

तब हम क्यों वही जीवन शैली अपनाते हें जो यहाँ के स्थायी निवासियों की है, जिनके पास यहाँ से आगे बढने के लिए कोई लक्ष्य ही नहीं है.

क्यों नहीं हम एक मुक्ति के साधक की जीवन शैली अपनाते हें ?

क्या इस बिषय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यक्ता नहीं है
यदि हाँ ; तो कब करेगा तू यह कार्य ?
"शुभस्य शीघ्रम "

निश्चित ही जैन श्रावकों की जीवनशैली भिन्न होनी चाहिए. एकदम अलग, जगत की मान्यता से एकदम भिन्न, अनोखी, अद्भुत. वर्तमान में सम्पूर्ण, आकुलता रहित शांति प्रदान करने वाली और भविष्य के लिए सम्पूर्णता (परमपद) प्रदान करने वाली.
क्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए जैनश्रावकों को अपने दिन/जीवन के कमसेकम समय में अहिंसक तरीके से न्याय-नीति पूर्वक अपनी कमसेकम मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त आजीविका की व्यवस्था करके अपना शेष अधिकतम समय अपने त्रैकालिक सुख का उपाय करने (परमात्मा बनने) की साधना में व्यतीत करना चाहिए.
यदि अन्य लोगों की ही तरह वह भी अपनेआपको दिनरात मात्र कमाने और भोगने में ही व्यस्त रखेगामात्र इसी जन्म की संभाल में उलझा रहेगा तो अनंतकाल तक के लिए आत्मकल्याण का उपक्रम कब करेगा

जैन श्रावक की निव्रत्तिमय आत्मकल्याण के उपक्रम में लीन 
जीवनशैली ही श्रावकाचार कहलाती है, वही अनुकरणीय है, अनुषरनीय है, उपादेय है, एकमात्र कर्तव्य है.

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इस आलेख का उद्देश्य किसी धर्म, साम्प्रदाय, आस्था या मान्यता पर टिप्पणी करना, उसकी निन्दा या प्रशंसा करना या किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है. इसका उद्देश्य मात्र  "जैन  सिद्धांत " के परिपेक्ष्य में  सही जीवन शैली का निरूपण करना है. 
पाठकगण कृपया इसी भावना के साथ पढ़ें -

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