Tuesday, September 22, 2015

उत्तम संयम धर्म

धर्म के दश लक्षणों में छठबां -

उत्तम संयम धर्म -

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

इसी आलेख से -

"अपनेआपमें सीमित रहना संयम है और बाहर भटकना असंयम, निजवैभव का उपभोग संयम है और याचक की निगाहों से परकी ओर ताकना असंयम."





उत्तम संयम धर्म 

पर से हटा उपयोग को, स्थापना  निज आत्म में 
बनना बनाना है  किसे, मैं हूँ स्वयं  परमात्म  मैं  
निजलीनता उपयोग की, संयम धरम है संयमन 
परसे प्रथक प्रत्येक द्रव, बस रहे निजमें ही मगन 


सम्यक्त्व सह उपयोग को, आत्मसन्मुख जो करे 
है संयमी  वह जीव जो, भाव आताप  वा  पीड़ा हरे 
पंचेन्द्रियों को  जीतकर  जो, महाव्रत  धारण  करे 
समिति पाले,कषाय निग्रह, त्रियोग को वशमें करे 

पदों का भावार्थ -
अपने उपयोग को परपदार्थों से हटाकर आत्मसन्मुख करना ही संयम है, उपयोग का संयमन ही संयम है. संसार का प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से ही पर द्रव्यों से प्रथक है और निज में ही सीमित है, प्रत्येक द्रव्य की इस स्वतंत्रता और संप्रभुता की स्वीक्रति का नाम ही संयम है.
सम्यग्दर्शन पूर्वक पांच व्रतों का धारण करना, पांच समितियों का पालन करना,पांच कषायों को वश में करे और मन, वचन, काय इन तीन डंडों का त्याग करना संयम है. 


अपनेआपमें सीमित रहना संयम है और बाहर भटकना असंयम, निजवैभव का उपभोग संयम है और याचक की निगाहों से परकी ओर ताकना असंयम.  
अनादिकाल से यह आत्मा अपने स्वभाव की सम्पूर्णता और निज वैभव को भूलकर, सुख की खोज में याचक की आशाभरी निगाहों से मात्र परपदार्थों की ओर ताक रहा है. इस प्रकार अपनी सीमाओं का उलंघनकर असंयमी होरहा है. 
इस जीव की यह प्रवृत्ति, चौर्य वृत्ति है, स्व की संप्रभुता और अनन्त द्रव्यों की स्वतंत्रता का घात है, असंयम है, अधर्म है.
प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए अपने वैभव को पहिचानकर अपने आत्मा में स्थित होना ही निश्चय से संयम है और सम्यग्दर्शन पूर्वक षटकाय के जीवों रक्षा का भाव और इन्द्रियों और मन को वश में करना व्यवहार संयम है 

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