Wednesday, September 23, 2015

विकल्पजाल में उलझे मरणान्तक व्यक्ति को संबोधन (3) : जीवन के प्रति हमारा द्रष्टिकोण कैसा होना चाहिए ?

विकल्पजाल में उलझे मरणान्तक व्यक्ति को संबोधन (3) -

जीवन के प्रति हमारा द्रष्टिकोण कैसा होना चाहिए ?
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 


इसी आलेख से - 

- "क्या कोई सराय (धर्मशाला या होटल) छोड़ते समय भी वहां की व्यवस्थाओं की चिंता करता है कि "पानी कब आयेगा, सफाई कौन करेगा,----"

- "----जब एक दिन मैं चला जाउंगा तब भी तो यही लोग यह सब करेंगे ही न , तब क्यों नहीं आज से ही सही."

- "----क्या मैं अपने स्वभाव में थोड़ा परिवर्तन करके इन अप्रिय प्रसंगों को टाल नहीं सकता हूँ ---"

- "------यदि ये लोग इसी तरह जीना चाहते हें तो मैं क्यों इसमें बाधक बनकर अपना ही सुखचैन खो दूं?"

- "सच तो यह है कि जगत का परिणमन तो स्वतंत्र है, यहाँ मेरे विकल्प से कुछ भी नहीं होता है, तब मैं क्यों व्यर्थ विकल्पों में उलझकर अपना उपयोग मलिन करूँ? मेरा मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहना ही योग्य है."






लगता है कि वह दिन (म्रत्यु )जो इस जीवन में कभी तो आना ही था, अब समीप है. अब मेरा देहपरिवर्तन का समय होगया है. 
मेरा मन अबभी क्यों यहीं पर उलझा हुआ है? 
क्या कोई सराय (धर्मशाला या होटल) छोड़ते समय भी वहां की व्यवस्थाओं की चिंता करता है कि "पानी कब आयेगा, सफाई कौन करेगा, अगला यात्री कब आयगा आदि.
मेरे इस घर में और सराय में अब मेरे लिए फर्क ही क्या  है? इस अनादि-अनन्त आत्मा के लिए ये मात्र  60-70 बर्ष क्या मायने रखते हें ? यह समय शान्ति और सुविधापूर्वक इस घर में कट गया पर अबतो इसका मोह छोड़कर आगे बढ़ना ही होगा न !
अब मैं यहाँ से चला जाउंगा तो न तो मैं ईन लोगों को पहिचानूंगा और न ही ये लोग मुझे. हम सभी लोग एकदूसरे से अनंतकाल तक के लिए बिछुड़ जायेंगे. 
अपने अगले जीवन में कदाचित संयोगवश मैं यहाँ आ भी पहुंचा तो यही मेरे ही द्वारा नियुक्त चौकीदार मुझे यहाँ घुसने तक नहीं देगा .
ऐसे में मेरा इनसे और इनका मुझसे क्या प्रयोजन है?
क्यों तो मैं इनसे द्वेष करूँ और क्यों राग करूँ? दोनों ही तो निष्फल हें. 
क्या मेरे बिना यहाँ की व्यवस्थाएं चलेंगीं नहीं? 
सच तो यह है कि बहुत अच्छी तरह से चलेंगीं, अबभी जब में कुछ इनों के लिए बाहर चला जाता हूँ तो यहाँ क्या रुक जाता है, क्या लुट जाता है? सबकुछ तो व्यवस्थित रहता है, तब क्यों में व्यर्थ ही अपने समय और उपयोग को इन्हीं के विकल्प में बर्बाद करूँ.
पहिले तो मुझे यह विकल्प भी सताता था कि यदि मैं यह सब नहीं करूंगा तो सब लोग क्या कहेंगे? क्या वे इसे मेरा असहयोग नहीं मानेंगे? 
पर अबतो सभी चाहते हें कि मैं उनके इन सब मामलों में दखल देना बंद करदूं. अबतो वे मेरी दखलन्दाजी को मेरा असहयोग मानने लगे हें. 
क्या यही मेरे हित में नहीं है ? मेरा समय, श्रम और शक्ति बचे और इन सबको अनुकूलता महसूस हो.
अब ये सब्जी थोड़ी मंहगी लेआयें या कुछ सब्जी सड़-गल कर फिक जाए तो मैं कर भी क्या सकता हूँ, मैं भी यह सब कबतक कर पाउँगा, जब एक दिन मैं चला जाउंगा तब भी तो यही लोग यह सब करेंगे ही न , तब क्यों नहीं आज से ही सही.
यूं भी मेरे पास इतना सबकुछ है और मेरी आवश्यकताएं हें अत्यंत सीमित. जो कुछ भी बचेगा वह इन्हीं के पास तो रहेगा न ! 
मैं इन्हें सुखी और संतुष्ट ही तो देखना चाहता हूँ न ? स्वयं मैं भी तो यही चाहता हूँ कि इन्हें अधिक से अधिक मिले ताकि उसका उपभोग करके ये सब लोग सुख से रहें, अब यदि इन्हें इसीप्रकार की कार्यप्रणाली से सुख मिलता है तो मैं क्यों रोकटोक करके इनके रंग में भंग करूँ ?
यूं भी मेरे रोकने से क्या रुक जाता है , ये तो वही करते हें जो इन्हें करना होता है, व्यर्थ ही मात्र वातावरण ही तो खराब होता है, तो क्या मैं अपने स्वभाव में थोड़ा परिवर्तन करके इन अप्रिय प्रसंगों को टाल नहीं सकता हूँ .
क्या ये लोग नहीं जानते हें कि मेरे ईन प्रयासों से जो भी बचत होगी वह इन्हीं को मिलेगी, वह मेरे तो किसी काम आने वाली है नहीं, तब भी यदि ये लोग इसी तरह जीना चाहते हें तो मैं क्यों इसमें बाधक बनकर अपना ही सुखचैन खो दूं?

इनके बचपन में मैं इन्हें कहानियाँ सुनाता था तो ये सभी बड़े प्रसन्न होते थे, हालांकि मेरे पास समय कम रहता था तो ये लोग कहानियां सुनाने के लिए चिरौरियाँ करते थे . अब आज हालात बदल गए हें. आज यदि मैं इन्हें कुछ सुनाना चाहता हूँ तो ये सुनना ही नहीं चाहते हें, पहिले मेरे पास सुनाने के लिए समय नहीं था आज इनके पास सुनने के लिए समय नहीं है. 

से मैं क्यों मैं जबरदस्ती कुछ न कुछ सुनाने का आग्रह पालूँ ?
यदि मैं कुछ नहीं भी सुना पाया तो न तो इनका मोक्ष रुकने वाला है और न ही मेरा, तब क्यों नहीं मैं अपना सुनाने का लोभ संवरण करूँ., यही सभीके हित में भी है.

सच तो यह है कि जगत का परिणमन तो स्वतंत्र है, यहाँ मेरे विकल्प से कुछ भी नहीं होता है, तब मैं क्यों व्यर्थ विकल्पों में उलझकर अपना उपयोग मलिन करूँ? मेरा मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहना ही योग्य है.
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