Monday, September 21, 2015

उत्तम सत्य धर्म

धर्म के दश लक्षणों में पांचबां -

उत्तम सत्य धर्म -

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

इसी आलेख से -
- "लोग कहते हें कि आज जगत में असत्य का बोलवाला है, पर मुझे तो असत्य कहीं दिखाई ही नहीं देता है. जो दिखाई देता है वह तो है, उसकी तो सत्ता है फिर वह असत्य कैसे हुआ?"

- "असत्य की सत्ता अज्ञानियों के अज्ञान में व धूर्तों के असत्य वचनों में है."

- "वीतरागी संत सत्यमहाव्रत, भाषासमिति और वचनगुप्ती द्वारा स्व-पर के हित में अपने वचनों का सदुपयोग करते हें."







                                                                उत्तम सत्य धर्म  

है सत्य का ही बोलवाला , असत्य जग में कुछ नहीं 
है सत वही अस्तित्व जिसका, असत तो  है ही नहीं 
मैं छल ग्रहण कर जगत में,अस्तित्व ना स्वीकारता 
ये त्रिकाली ध्रुवतत्व आतम, तू स्वयं है क्या ना पता 

सत्ता जगत में आत्मा की , स्वीकारना ही सत्य है 
सार तो बस इक यही है , दिव्य्ध्वनी  का  कथ्य  है 
मैं  एक , शुद्ध , परिपूर्ण  हूँ ,  ज्ञान  वा  आनंद   से  
यही  हें  वे  सत्वचन  जो ,  ज्ञान  को  निर्मल  करे 


पदों का भावार्थ - 
अपने अस्तित्व गुण के कारण मैं स्वयं व प्रत्येक द्रव्य सुरक्षित है, वह नतो कभी उत्पन्न होता है और न ही नष्ट ही. बस इसीलिये जगत में जो कुछ है वह सत्य ही तो है, जो नहीं है (असत्य) उसकी तो सत्ता ही नहीं है.
वस्तुस्वरूप के प्रति, अस्तित्व गुण के प्रति और स्वयं अपनी आत्मा के प्रति यह हमारा छल ही है कि हम अपनी ही सत्ता से ही इन्कार करते हें.
अपने त्रिकालीध्रुव भगवान् आत्मा की सत्ता को स्वीकार करना ही सत्य धर्म है.  


लोग कहते हें कि आज जगत में असत्य का बोलवाला है, पर मुझे तो असत्य कहीं दिखाई ही नहीं देता है. जो दिखाई देता है वह तो है, उसकी तो सत्ता है फिर वह असत्य कैसे हुआ?  

फिर भी यदि हमें यही आग्रह हो कि नहीं असत्य तो चाहिए, उसके बगैर तो हमारा काम ही नहीं चल सकता है, तो ठीक है हम मान लेते हें, असत्य की सत्ता अज्ञानियों के अज्ञान में व धूर्तों के असत्य वचनों में है.
जिस प्रकार जगत में यूं तो गधे के सर पर सींग की सत्ता है नहीं, पर हाँ! कोई ऐसा अज्ञानी हो सकता है जो यह कल्पना करता हो, ऐसा मानता हो.

सामान्यत: लोग सत्य वचन को ही सत्य धर्म मान बैठते हें. 
ठीक भी है, उतम सत्य धर्म के धारी तीन कषाय के अभावरूप वीतरागता के धारक ,निर्ग्रथ संतों के सत्य बचन भी व्यवहार से सत्य धर्म कहे जाते हें.
उक्त वीतरागी संत सत्यमहाव्रत, भाषासमिति और वचनगुप्ती द्वारा स्व-पर के हित में अपने वचनों का सदुपयोग करते हें.   

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