Sunday, September 20, 2015

लगता है अब बिदाई की वेला आ ही गई है : मरणान्तक व्यक्ति को संबोधन (2)

मरणान्तक व्यक्ति को संबोधन -
लगता है अब बिदाई की वेला आ ही गई है.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

इसी आलेख से -

- "----अब यदि यह धर्माराधना के अनुकूल ही नहीं रहा, जब इसका अंत आ ही गया है तो यही सही. 
न तो यह हर्ष का बिषय है और न ही विलाप का. 
मैं न तो इसकी कामना ही करता हूँ और न ही इसके प्रति अरुचिवंत ही हूँ."

- "------मैं आज किसके साथ मित्रता का भाव लेकर जाऊं और किसके प्रति शत्रुता का? कलतो मैं उन्हें पहिचान ही नहीं पाउँगा."

- "-----जब मेरे बस में कुछ है ही नहीं तब मैं ही क्यों विकल्पों में उलझा रहूँ. इस देह को इसके अनुरूप परिणामित होने दो, क्यों नहीं मैं अपना कार्य करूं."

- "-----जीवनभर किया गया तत्वअभ्यास आज मेरी वह संचित निधि है जो मुझे इस संसार सागर से पार उस मुक्त अवस्था में पहुंचाएगी जहां से फिर कभी आवागमन नहीं होगा"







इस मामले में मैं पर्याप्त भाग्यशाली रहा कि मुझे इतना लंबा यह जीवन मिला जिससे मैं अधिकतम संभव समय तक जीवन जीकर आत्माराधना कर सका; अन्यथा जीवन में इतना समय मिलता ही कितनों को है.

एक तो यह मानव जीवन ही दुर्लभ है, फिर उत्तम धर्म, उत्तम कुल, जिनवाणी का श्रवण, स्वस्थ्य शरीर, उत्तम आजीविका, अनुकूल संबंधी और धर्माराधना के अनुकूल देश-काल.  
मेरा सौभाग्य कि मुझे यह सब कुछ उपलब्ध रहा.

यदि यह जीवन कुछ और दिन धर्माराधना के अनुकूल स्वस्थ्य बने रहकर चलता तो कुछ और समय धर्माराधना में व्यतीत होता पर अब यदि यह धर्माराधना के अनुकूल ही नहीं रहा, जब इसका अंत आ ही गया है तो यही सही. 
न तो यह हर्ष का बिषय है और न ही विलाप का. 
मैं न तो इसकी कामना ही करता हूँ और न ही इसके प्रति अरुचिवंत ही हूँ.
क्या नितप्रति जब हम अपने कपडे बदलते हें तो विलाप करते हें? 
नहीं न !
जबतक यह आत्मा (मैं) अशरीरी नहीं होजाता है तबतक इसका इस प्रकार शरीर बदलना भी तो एक सामान्य सी प्रक्रिया है,आखिर इसके प्रति इतनी संवेदनशीलता क्यों?
कपडे बदलने के प्रति संवेदनशील तो वे दरिद्री हो सकते हें जिन्हें वर्तमान वस्त्र त्यागदेने पर उससे बेहतर वस्त्र मिलने की उम्मीद न हो. 
मैंने तो इस प्रकार का धर्मसम्मत, संयमित जीवन जिया है कि मुझे अपने बेहतर भविष्य के बारे में संदेह का कोई  कारण ही नहीं है .

यूं भी सब कुछ तो देख-जान लिया है मैंने इस जीवन में, सब कुछ तो भोग लिया है, कुछ भी तो करना शेष नहीं रहा है.
इस संसार के स्वरूप का कोई भी पहलू तो मुझसे अपरिचित नहीं रहा, अब इससे कैसी ममता?

एक समय था (बचपन) जब लगता था कि मैं इनके (माता-पता व सम्बन्धी) बिना कैसे रहूँगा, फिर एक समय ऐसा आया जब लगने लगा कि ये मेरे बिना कैसे रहेंगे और फिर हम साथ-साथ कैसे और कब तक रह सकते हें भला. अब कहीं ऐसा न हो कि कोई विचारने लगे कि यहसब कब तक चलेगा?

कितनी निकटता से मैंने देखा और कितनी गहराई से अनुभव किया है कि जगत के ये संयोग, ये भोग कितने दोगले हें, दूर के ढोलों की ही तरह दूर से देखने पर कितने सुहाने लगते हें पर इनका यथार्थ तो विल्कुल इसके विपरीत है, जितना ही इन्हें भोगो, भूंख बढ़ती ही जाती है, तृप्ति तो कभी मिलती ही नहीं. 
स्पष्ट है कि तृप्ति का उपाय भोग नहीं.  इनके सहारे तो मुझे इस जीवन में कभी भी संतुष्टी और तृप्ति मिलेगी ही नहीं न ? तब क्यों मैं इनकी माया में ही उलझा रहूँ; क्यों नहीं किसी विश्वस्त आश्रय की तलाश करूँ, जहां मुझे सच्चा सुख और तृप्ति मिले, मात्र तात्कालिक ही नहीं वरन त्रैकालिक, हमेशा के लिए.
आज मुझे अपनी इस नादानी पर हंसी आरही है कि अबतक भी क्यों में इन्ही की माया में उलझा रहा ? 
इनका चरित्र तो सदा से ही स्पष्ट था, मैं स्वयं ही बहुत पहिले ही इस निष्कर्ष पर पहुँच ही गया था, पर फिर भी मैंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. बस इन्हीं की ममता में अटका रहा, इन्हीं के हाथों में खेलता रहा, इन भोगों और संयोगों ने मेरी शक्तियों और समय का भरपूर शोषण किया. 
अरे! इन्होंने क्या किया ?
ये कौन होते हें ऐसा करने वाले ?
मैंने ही तो यह सब होने दिया.
संयोगों ने कब मुझे भुलावे में रखा? वे तो निरंतर ही बदलते रहे, स्पष्ट संकेत देते रहे, पुकार-पुकारकर कहते रहे कि हम अस्थिर हें, हमतो बेबफा हें. मैंने ही उनके संकेतों को नहीं समझा
अब देखो न ! एक-एक कर सभी तो छोड़कर चले गए.
माता-पिता, बंधु-बांधव, सगे-संबंधी, मित्र-अनुचर (servants) कोई भी तो नहीं ठहरा साथ निभाने के लिए?
अरे माता-पिता के सामान निस्पृह, निस्वार्थ, ममतामयी संबंधी तो और कौन होता है, पर वे तो मुझे अबोध (innocent) छोड़कर ही चले गये थे. 
जब वे ही ना रहे तो और किसकी आशा की जाए? 
मुझे तो तभी समझ लेना चाहिए था, पर मैं नहीं समझा.

मानाकि माता-पिता ने तो मरकर ही छोड़ा था. वे तो कहाँ छोड़ना चाहते थे पर आखिर मौत पर किसका जोर चलता है. तब भी वे तो अंततक मेरी ही चिंता करते रहे, सबसे मेरे बारे में ही बातें करते रहे, स्वयं मुझे और अन्य सभीको मेरे ही बारे में निर्देश देते रहे, पर उनके जाने के बाद पिता सामान बड़े भाई तो जीतेजी ही छोड़कर चले गए न! जानबूझकर अनजान बनते हुए.
आखिर कौन था उनके शिवाय मेरा इस विशाल दुनिया में? पर उन्हें इस बात की परबाह ही कहाँ थी, उनके कुछ और भी तो अपने होगये थे न!

अब ये पत्नी और बच्चे हें जो भले ही मुझपर जान छिड़कते हें पर अब मैं ही कहाँ उनका हुआ? मैं भी तो आखिर चल ही दिया ना!

अरे! औरोंकी बात क्या करें, यह देह तो मेरी अपनी है, कितना जतन किया मैंने इसका? दिनरात इसीकी सेवा में तो लगा रहा.
इसको सजाने-संबारने में, इसको खिलाने-पिलाने में, न तो भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार किया और न ही दिन-रात का. 
इसको स्वस्थ्य रखने के लोभ में कितनी बर्जिसें कीं. 
सरे बाजार घोड़े जैसा दौड़ा और कुत्ते जैसा हाँफा.
भोजन किया तो इसके पोषण के लिए, छोड़ा तो इसके स्वास्थ्य के लिए.
मैं इसके प्रति कितना समर्पित बना रहा पर इसने कब मेरी एक भी सुनी?

जिस जबानी पर मैं इतना इठलाता था, वही मुझे छोड़कर चली गई.
जिस शक्ति पर मुझे इतना गुमान था अब वही नहीं रही?
मेरे वे सुन्दर रेशमी बाल, जिसकी एक-एक लट को मैं घंटों-घंटों सजाता-संबारता था, कहाँ गए बे?
पहिले वे एक-एक कर काले से सफ़ेद होते गए, मैं उनपर कालिख पोत-पोतकर ही जैसे-तैसे काम चलाता रहा पर मैं अंतत: असहाय सा ताकता ही रहा और आखिर वे भी मैदान छोड़ ही भागे. 

यही हाल इस जमीन-जायजाद और धन-सम्पत्ति का रहा, इसने तो मानों सराय ही समझ लिया था मेरे घर को, जब चाहे आजाती और चाहे जब चली जाती, मानो इसे इजाजत लेने की तो आवश्यक्ता ही न थी. 
मैं ही इसका चाकर बना रहा, जब आई तो जश्न मनाता रहा, गई तो क्रंदन करता रहा इस जैसी बेबफा के लिए. अब इसे बुद्धी का दिवालियापन नहीं तो और क्या कहा जाए? 

इस प्रकार सारे ही संयोग तो एक-एककर मुझे छोड़कर चले गए. 
वे तो चले गए पर में तब भी उन्हीं की ममता में अटका रहा. विलाप करता रहा, दुखी होता रहा.
तब तो वे जाते थे और मैं रह जाता था विरही बनकर, पर अब आज में ही चला उन्हें विरह की वेदना में छोड़कर.

पता नहीं क्यों बहुत बुरा-भला कहते हें लोग इस मौत को, इसके विचार मात्र से कांपते हें, इसके जिक्र से ही परहेज करते हें. 
क्यों नहीं लोग समझ पाते हें कि मौत तो हमारी मित्र है जो इस सड़े-गले, जर्जर, भग्न शरीर से छुटकारा दिलाकर हमें नया स्वस्थ्य शरीर प्रदान करती है.
जिन जैसे संयोगों को छोड़कर मैं यहाँ से जारहा हूँ इन्हें तो मैं भूल जाउंगा, इस बार मुझे तो उनसे विरह की पीड़ा होगी नहीं, मैं तो अपनी आदत के अनुरूप अपने नए संयोगों में तन्मय हो जाउंगा. 
अनादिकाल से आजतक मैं कितनी बार कितने जीवों के निकट संपर्क में आया और फिर उनसे बिछुड़ गया, अब मैं उन्हें जनता तक नहीं, उनकी याद में विरह की पीड़ा हो इस बात का तो प्रश्न कहाँ है?
संसार के इन अनन्त जीवों में से कितने जीव, मेरे कितने भवों में मेरे निकट संबंधी और हितैषी रहे होंगे और कितने प्रतिद्वंद्वी व बैरी; पर मैं आज किसे पहिचानता हूँ?
ऐसे में मैं आज किसके साथ मित्रता का भाव लेकर जाऊं और किसके प्रति शत्रुता का? कलतो मैं उन्हें पहिचान ही नहीं पाउँगा.
संभव है कि आज जो शत्रु हें, अत्यंत पराये हें, कल वे ही मेरे निकटतम और संबंधी बन जाएँ और आज जो अपने हें वे पराये हो जाएँ.
हो नहो, जो आज मेरे अपने हें, अत्यंत निकट हें, वे ही कल तक प्रतिद्वंद्वी व पराये रहे हों. 
अब कोई तो कहे कि किसे अपना मानकर प्रीति करूं और किसे पराया जानकर बेरुखी दिखलाऊं? सभीतो एक जैसे ही परद्रव्य हें जो न कभी "मैं "हुए हें और न ही "मेरे". 

जिन्हें मैं छोड़कर जारहा हूँ वे भी अपने नए संयोगों में व्यस्त हो जायेंगे. आखिर इस दुनियाँ में किसके लिए क्या रुक जाता है, ऐसी ही स्थितियों में मैं स्वयं ही कब किसी के लिए ठहरा? 
आखिर क्या नहीं होगा? 
क्या भूंख या प्यास नहीं लगेगी, क्या मलमूत्र क्षेपण नहीं होगा, या श्वासोच्छ्वास ही रुक जाएगा? 
क्या दिन-रात नहीं होंगे, निद्रा और जागरण नहीं होगा, क्या आवागमन ठहर जाएगा ?
जब यह सबकुछ चलेगा तो यह धन्धा-व्यापार ही कबतक बंद रह सकेगा? 
यह सबतो चलता ही रहेगा, मेरे चलेजाने से क्या रुक जाएगा? 
कुछ दिनों में तो लोग भूल ही जायेंगे कि इस नाम का भी कोई व्यक्ति था.
यूं भी मुझे इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कोई याद करे या भूल ही जाये. जब मैं ही वह नहीं रहा.
रही बात संयोगों की तो ऐसे ही संयोग मुझे वहां भी मिल ही जायेंगे जहां मैं जारहा हूँ, मैं उनमें गाफिल हो जाउंगा. मैं भी कब इन्हें याद करने वाला हूँ ?
यही उचित भी तो है ! आखिर हम जैसे लोगों के जीवन में ऐसा है ही क्या जिसे याद रखा जाए, आखिर हम किस मायने में अन्यों से भिन्न और विशिष्ट हें जो उल्लेखनीय हो?

आज जब यह शरीर आत्माराधना के अनुकूल ना रहा, मैं सबके लिए अनुपयोगी होगया और सब मेरे लिए असहाय, वेदना रहित निराकुलता न रही, यह जीवन संभव ही न रहा, सबसे अच्छी बात तो यह है कि मेरी यह अवस्था देख-समझकर सभी लोग मेरे बिना जीवन जीने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो ही गए हें, जब मेरे बस में कुछ है ही नहीं तब मैं ही क्यों विकल्पों में उलझा रहूँ. इस देह को इसके अनुरूप परिणामित होने दो, क्यों नहीं मैं अपना कार्य करूं. 
यूं तो आज इस अवस्था में मेरे लिए यह भी संभव नहीं होता कि जिनवाणी का अध्ययन व श्रवण कर सकूं, उसके मर्म को, अपने इस आत्मा के वैभव को समझ सकूं, स्वपरभेद्विज्ञान कर सकूं पर जीवनभर किया गया तत्वअभ्यास आज मेरी वह संचित निधि है जो मुझे इस संसार सागर से पार उस मुक्त अवस्था में पहुंचाएगी जहां से फिर कभी आवागमन नहीं होगा , मैं फिर कभी माँ की कोख में नहीं जाउंगा, फिर कभी आज जैसी इस अवस्था में नहीं आउंगा.

अब मैं स्वयं में स्थित होता हूँ.
अस्तु !




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