(एक कहानी जो अभी अधूरी ही लिखी गई है उसीका एक अंश )
मेरी डेली डायरी का एक पन्ना
(कहानी )
१४ जून २०१२
रात्रि ११.४१
ओह ! झंझावातों (तूफ़ान) से भरा एक और दिन बीत गया .
एक लंबा सा दिन , बहुत लंबा .
लंबा इसलिए क़ि यह दिन सिर्फ दिन ही नहीं वरन कल की पूरी रात ही तो लील (निगल) चुका है .
दरअसल कल जो वह बड़ा आर्डर फाइनल हो गया , कठोर प्रयत्नों का वह लंबा सिलसिला अनुकूल परिणाम के साथ विराम को प्राप्त हुआ , तद्जनित उद्विग्नता ( anxiety ) ने रात भर सोने ही न दिया , सारी रात करवटें बदलते ही बीती , अरे ! बीती क्या ; यदि कहूं क़ि कटी , तो गलत न होगा .
बड़ा ही विचित्र लगता है यह सब .
अरे ! सफलता तो आनन्ददायक होनी चाहिए , आनन्द में अभिवृद्धी करने वाली होनी चाहिए , जो प्राप्त आनन्द का ही हरण करले वह उपलब्धि कैसी ? वह तो उपाधि (व्याधि) हुई !
समय कटता ही न था इसलिए मैं थोड़ा जल्दी ही उठ बैठा .
लगभग ५ बजे होंगे .
उठ तो गया , पर अभी उठना कहाँ चाहता था , आखें तो नींद से बोझिल हो रही थीं .
ठीक से उजाला भी नहीं हुआ था ओर लाइट जलाना नहीं चाहता था क्योंकि चांदनी के उस मद्धिम रौशनी में मैं देख चुका था क़ि वह (मेरी पत्नी) किस तरह घोड़े बेचकर सो रही थी , दीन दुनिया से बेखबर , मानो अब कुछ भी करना शेष ही न रहा हो .
नींद में भी मुद्रा वही ; मानो झांसी की रानी हवा में तलवार लहराती हुई घोड़े पर सबार , हवा से बातें कर रही हो .
मैं नहीं चाहता था क़ि अब उसकी भी नींद उड़ जाए .
मैं स्वयं अपने लिए तो एक उजली रात काली कर ही चुका था ( कौन जाने , मात्र एक ही या ------ ) पर उसे इस सजा में भागीदार नहीं बनाना चाहता था , आखिर उसका दोष ही क्या था ?
तथापि , आखिर जो नींद मुझे किसी भी कीमत पर मयस्सर (उपलब्ध ) नहीं वही मीठी मीठी नींद उसे सहज ही सुलभ है यह देखकर मैं इर्ष्या से भर उठा.
अब प्रसंग आ ही गया है तो इस " उजले ओर काले " की भी व्याख्या कर ही डाली जाए -
मैं समझ ही नहीं पाता हूँ क़ि किसे तो " उजला " कहा जाए ओर किसे " काला " .
अच्छा भला दिन यदि चैन से सोते हुए बीत जाए तो सुकून नहीं मिलता , ऐसा लगता है क़ि दिन काला हो गया ओर इसके विपरीत यदि घोर अलसाई सन्नाटे भरी रात कोई सार्थक काम करते हुए भी बीते तो हम कहते हें क़ि रात काली हो गई .
कोई तो कहे क़ि काम करना हमारा आदर्श है या सोना .
दिन में सो जाएँ तो दिन काला हो जाता है ओर रात में काम करें तो रात काली हो जाती है .
उजाला अभी हुआ नहीं था ओर बत्ती जला नहीं सकता था , आखें बोझिल थीं और नींद लग नहीं रही थी , हाँ विचार करने के लिए वातावरण आदर्श था , विघ्न रहित पर कोई और दिन होता तो बात और होती , मैं इन कुछ अनमोल , दुर्लभ क्षणों पर मर मिटता पर आज नहीं ; आज तो मेरी समस्या यह थी क़ि किस तरह मस्तिष्क में उमड़ रही विचारों की इन उद्दाम तरंगों को विराम दूं , उनको काबू में करूं , इस प्रवाह तो थाम सकूं , ऐसे में भला कोई नया विचार -------?
स्वरचित एक कहानी का एक अंश -
"मैं सो जाना चाहता था पर सो नहीं पा रहा था , तब मैं उठ बैठना चाहता था पर मैं उठ भी तो नहीं पा रहा था .
कहीं मेरा अविवेक मुझे कुछ करने न देता था और कभी मेरा विवेक ही मुझे रोक लेता था । ------------------
बड़ा ही विचित्र है यह जीवन ; यहाँ खालीपन भी नींद उड़ा देता है और व्यस्तता भी .
न तो खाली पेट हमें सोने देता है और न ही बहुत भरा पेट .
कहने को तो जीवन भी मेरा है और पेट भी ,पर सचमुच कुछ भी तो मेरे हाथ में नहीं है , सबकी शर्तें हें , सबकी मर्यादाएं हें "
==========yet to write------------
मेरी डेली डायरी का एक पन्ना
(कहानी )
१४ जून २०१२
रात्रि ११.४१
ओह ! झंझावातों (तूफ़ान) से भरा एक और दिन बीत गया .
एक लंबा सा दिन , बहुत लंबा .
लंबा इसलिए क़ि यह दिन सिर्फ दिन ही नहीं वरन कल की पूरी रात ही तो लील (निगल) चुका है .
दरअसल कल जो वह बड़ा आर्डर फाइनल हो गया , कठोर प्रयत्नों का वह लंबा सिलसिला अनुकूल परिणाम के साथ विराम को प्राप्त हुआ , तद्जनित उद्विग्नता ( anxiety ) ने रात भर सोने ही न दिया , सारी रात करवटें बदलते ही बीती , अरे ! बीती क्या ; यदि कहूं क़ि कटी , तो गलत न होगा .
बड़ा ही विचित्र लगता है यह सब .
अरे ! सफलता तो आनन्ददायक होनी चाहिए , आनन्द में अभिवृद्धी करने वाली होनी चाहिए , जो प्राप्त आनन्द का ही हरण करले वह उपलब्धि कैसी ? वह तो उपाधि (व्याधि) हुई !
समय कटता ही न था इसलिए मैं थोड़ा जल्दी ही उठ बैठा .
लगभग ५ बजे होंगे .
उठ तो गया , पर अभी उठना कहाँ चाहता था , आखें तो नींद से बोझिल हो रही थीं .
ठीक से उजाला भी नहीं हुआ था ओर लाइट जलाना नहीं चाहता था क्योंकि चांदनी के उस मद्धिम रौशनी में मैं देख चुका था क़ि वह (मेरी पत्नी) किस तरह घोड़े बेचकर सो रही थी , दीन दुनिया से बेखबर , मानो अब कुछ भी करना शेष ही न रहा हो .
नींद में भी मुद्रा वही ; मानो झांसी की रानी हवा में तलवार लहराती हुई घोड़े पर सबार , हवा से बातें कर रही हो .
मैं नहीं चाहता था क़ि अब उसकी भी नींद उड़ जाए .
मैं स्वयं अपने लिए तो एक उजली रात काली कर ही चुका था ( कौन जाने , मात्र एक ही या ------ ) पर उसे इस सजा में भागीदार नहीं बनाना चाहता था , आखिर उसका दोष ही क्या था ?
तथापि , आखिर जो नींद मुझे किसी भी कीमत पर मयस्सर (उपलब्ध ) नहीं वही मीठी मीठी नींद उसे सहज ही सुलभ है यह देखकर मैं इर्ष्या से भर उठा.
अब प्रसंग आ ही गया है तो इस " उजले ओर काले " की भी व्याख्या कर ही डाली जाए -
मैं समझ ही नहीं पाता हूँ क़ि किसे तो " उजला " कहा जाए ओर किसे " काला " .
अच्छा भला दिन यदि चैन से सोते हुए बीत जाए तो सुकून नहीं मिलता , ऐसा लगता है क़ि दिन काला हो गया ओर इसके विपरीत यदि घोर अलसाई सन्नाटे भरी रात कोई सार्थक काम करते हुए भी बीते तो हम कहते हें क़ि रात काली हो गई .
कोई तो कहे क़ि काम करना हमारा आदर्श है या सोना .
दिन में सो जाएँ तो दिन काला हो जाता है ओर रात में काम करें तो रात काली हो जाती है .
उजाला अभी हुआ नहीं था ओर बत्ती जला नहीं सकता था , आखें बोझिल थीं और नींद लग नहीं रही थी , हाँ विचार करने के लिए वातावरण आदर्श था , विघ्न रहित पर कोई और दिन होता तो बात और होती , मैं इन कुछ अनमोल , दुर्लभ क्षणों पर मर मिटता पर आज नहीं ; आज तो मेरी समस्या यह थी क़ि किस तरह मस्तिष्क में उमड़ रही विचारों की इन उद्दाम तरंगों को विराम दूं , उनको काबू में करूं , इस प्रवाह तो थाम सकूं , ऐसे में भला कोई नया विचार -------?
स्वरचित एक कहानी का एक अंश -
"मैं सो जाना चाहता था पर सो नहीं पा रहा था , तब मैं उठ बैठना चाहता था पर मैं उठ भी तो नहीं पा रहा था .
कहीं मेरा अविवेक मुझे कुछ करने न देता था और कभी मेरा विवेक ही मुझे रोक लेता था । ------------------
बड़ा ही विचित्र है यह जीवन ; यहाँ खालीपन भी नींद उड़ा देता है और व्यस्तता भी .
न तो खाली पेट हमें सोने देता है और न ही बहुत भरा पेट .
कहने को तो जीवन भी मेरा है और पेट भी ,पर सचमुच कुछ भी तो मेरे हाथ में नहीं है , सबकी शर्तें हें , सबकी मर्यादाएं हें "
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