यदि तेरे पास बाहर से दिखाई देने बाला कोई परिग्रह नहीं है तो जरूरी नहीं है क़ि तू धर्मात्मा ही हो .
यह तो पाप के उदय में भी होता है .
परिग्रह नामक पाप किसी पर वस्तु में नहीं है , वह तो तेरी बासना में है .
तेरे अन्दर जगत की अनन्त दौलत ग्रहण करने की लालसा है वही तेरा अनन्त परिग्रह है .
इसी प्रकार तुझे त्यागी बनने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए , यानि क़ि ऐसी किसी वस्तु का तेरे पास होना जरूरी नहीं है जिसका तू त्याग करना चाहता है .
वस्तु का तो तूने ग्रहण ही कब किया था जो तू उसका त्याग करेगा ?
हाँ ! तू उसे ग्रहण करना चाहता था , तत्संबंधी राग तेरा परिग्रह था , अब यदि तू उस राग का त्याग करता है तो तू उसका त्यागी हो गया . अब तुझे तत्संबंधी बंध नहीं होगा .
हमारे अभिप्राय में जो जगत के अनन्त पर पदार्थों के ग्रहण का राग विद्यमान है वह राग हमें निरंतर पाप का बंध करवाता है , किसी वस्तु का संयोग हो या न हो . संयोग और वियोग तो पुन्य और पाप के उदय के आधीन हें .
यह तो पाप के उदय में भी होता है .
परिग्रह नामक पाप किसी पर वस्तु में नहीं है , वह तो तेरी बासना में है .
तेरे अन्दर जगत की अनन्त दौलत ग्रहण करने की लालसा है वही तेरा अनन्त परिग्रह है .
इसी प्रकार तुझे त्यागी बनने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए , यानि क़ि ऐसी किसी वस्तु का तेरे पास होना जरूरी नहीं है जिसका तू त्याग करना चाहता है .
वस्तु का तो तूने ग्रहण ही कब किया था जो तू उसका त्याग करेगा ?
हाँ ! तू उसे ग्रहण करना चाहता था , तत्संबंधी राग तेरा परिग्रह था , अब यदि तू उस राग का त्याग करता है तो तू उसका त्यागी हो गया . अब तुझे तत्संबंधी बंध नहीं होगा .
हमारे अभिप्राय में जो जगत के अनन्त पर पदार्थों के ग्रहण का राग विद्यमान है वह राग हमें निरंतर पाप का बंध करवाता है , किसी वस्तु का संयोग हो या न हो . संयोग और वियोग तो पुन्य और पाप के उदय के आधीन हें .
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