Monday, August 20, 2012

लोग कहते हें क़ि धर्म की आजीविका नहीं होनी चाहिए ? यदि धर्म की नहीं तो क्या पाप की होनी चाहिए ?

लोग कहते हें क़ि धर्म की आजीविका नहीं होनी चाहिए ?
यदि धर्म की नहीं तो क्या पाप की होनी चाहिए ?
अरे ! आजीविका के साधन हमारे समय और शक्ति का इतना शोषण करते हें क़ि फिर कुछ और करने का समय ही नहीं बचता है ; न तो जीवन के लिए न मनोरंजन के लिए .
यदि हमारी आजीविका ही हमारा मनोरंजन भी हो , यानी क़ि आजीविका कमाने के लिए भी हमें वही काम करना पड़े जो हम करना चाहते हें , जिसमें हमें आनंद आता है , जो करने से हमें संतोष मिलता है तो हमें मनोरंजन के लिए प्रथक से समय की जरूरत नहीं रहेगी , या दूसरे शब्दों में हम कह सकते हें क़ि हम अपने का में अब दुगुना समय लगा सकते हें , रोजगार का और मनोरंजन का भी .
यदि एक व्यक्ति मंदिर में पुजारी का जॉब करता है , तो उसे दिन भर भगवान की पूजा भक्ति का अवसर मिलता है , जो उसे चाहकर भी न मिलता यदि बो आजीविका के लिए कई और काम करता होता .
ऐसी आजीविका में हमें सफलता भी अधिक मिलेगी क्योंकि रूचि का बिषय होने से हम वह काम अधिक समर्पण के साथ करेंगे .
यदि धर्म का चिंतन -मनन , पठन-पाठन ही हमारी आजीविका का साधन भी बन जाए तो कहने ही क्या , ताब तो हमें बस दिन रात वही करना है जो आत्म कल्याण के लियी आवशयक है .
ऐसा करने से हम अपना तो कल्याण करेंगे ही पर अन्यों के कल्याण में भी निमित्त बनेंगे .
मेरी द्रष्टि से तो ऐसी आजीविका से उत्तम कोई अन्य आजीविका हो ही नहीं सकती है .
जहाँ धर्म की आजीविका का निषेध किया गया है वह निषेध उसके दोषों का है , जैसे क़ि यदि कोई व्यक्ति धन के लोभ में सिद्धांतों की व्याख्या तोड़ -मरोड़कर करे तो वह दोषी है .
पर यह आजीविका नहीं , आजीविका के क्षेत्र का भ्रष्ट आचरण है और भ्रष्ट आचरण तो हर क्षेत्र में निषिद्ध है , रोकने योग्य है .
यदि धर्म की आजीविका को हे मानकर कोई भी यह काम करेगा ही नहीं तो फिर धर्म के पठन-पाठन का क्या होगा ? फिर तो यह परम्परा ही नष्ट हो जायेगी .
क्या हमें यह इष्ट है ?
हमें सही परिपेक्ष्य में ही सब बातों का विचार करना चाहिए .

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