आखिर ये मूंग सीझते क्यों नहीं ?
अपने जीवन में हम दो कदम आगे बढ़ क्यों नहीं पाते हें ?
वह कौनसी बात है जो हमारा आत्मोत्थान रोकती है ?
कितने भोले हें हम ?
हमारे जीवन में दो धाराएं एक साथ चलती हें -
- बातों में बड़े - बड़े आदर्श
और
व्यवहार में निकृष्टतम जमीनी हकीकत .
ऐसा क्यों होता है ?
क्योंकि हमारे संस्कार ही ऐसे हें -
हम धर्म की , ऊँचे आदर्शों की , बातों को अच्छा मानते हें , हम उन्हें सुनते हें , पड़ते हें , उनकी चर्चा करते हें .
कुच्छ लोग तो बड़ी गहराई से उनका अध्ययन करते हें और उसके प्रवक्ता भी बन जाते हें .
इतना सब कुछ करने के बाबजूद हम उन बातों को जीवन में उतार नहीं पाते हें .
उतार क्या नहीं पाते , हम उन्हें करने लायक ही नहीं मानते , हम उन्हें व्यवहारिक ही नहीं मानते .
हम मानते कि उन बातों को जीवन में उतारने से जीवन चल ही नहीं सकता है .
हम मानते हें कि वे बातें हमारे लिए हें ही नहीं , ये तो भगवान् की बातें हें , संतों और महात्माओं की बातें हें .
इस प्रकार हमारा द्वैध व्यक्तित्व (double personality) वाला जीवन चलता रहता है .
बातें बड़ी-बड़ी और कर्म निकृष्ट .
हाँ यह सत्य भी है कि जो लोग उन बातों को व्यवहार में , जीवन में उतारते हें वे संत-महात्मा बन जाते हें , भगवान् बन जाते हें , पर हमें भी तो संत और भगवान् बनना है न ?
हमें क्यों नहीं बनना है संत या भगवान् ?
कुछ विरले लोग होते हें जो यह समझ पाते हें और मानते हें की ये बातें जीवन में उतारने के योग्य हें , व्यावहारिक हें और उतारी जानी चाहिए . ऐसे लोग आत्मकल्याण की दिशा में आगे बड़ जाते हें .
इस प्रकार हम पाते हें कि एक गहरा कुसंस्कार , एक गलत मान्यता कि " बातें करने की बातें कुछ और होती हें और जीवन में अपनाने की बातें कुछ और होती हें " हमें संसार में भटकाता रहता है , हमारा कल्याण नहीं होने देता है .
बचपन में मैं अच्छे-अच्छे फलों से सजी हुई बड़ी -बड़ी दुकाने देखता था पर बहां कभी कोई ग्राहक फल खरीदता हुआ दिखाई नहीं देता था , वहीं दूसरी ओर फुटपाथ पर फलों के टोकरे लेकर बैठे हुए लोगों की दुकानें हमेशा ही ग्राहकों से भरी रहती थीं . यह सब देखकर मेरे बाल मन पर एक छाप पड़ गई की बे दुकानें फलों की प्रदर्शनी हें और ये दुकानें फल खरीदने के लिए हें . बे फल भी खरीदे जा सकते हें यह मेरी कल्पना में भी नहीं आया और गहरी जड़ जमा चुके उन संस्कारों को उखाड़ फेकने के लिए मुझे भाई मशक्कत करनी पडी .
हमें आत्मा - परमात्मा की बातों के बारे में भी अपना यह संस्कार बदलना होगा .
अपने जीवन में हम दो कदम आगे बढ़ क्यों नहीं पाते हें ?
वह कौनसी बात है जो हमारा आत्मोत्थान रोकती है ?
कितने भोले हें हम ?
हमारे जीवन में दो धाराएं एक साथ चलती हें -
- बातों में बड़े - बड़े आदर्श
और
व्यवहार में निकृष्टतम जमीनी हकीकत .
ऐसा क्यों होता है ?
क्योंकि हमारे संस्कार ही ऐसे हें -
हम धर्म की , ऊँचे आदर्शों की , बातों को अच्छा मानते हें , हम उन्हें सुनते हें , पड़ते हें , उनकी चर्चा करते हें .
कुच्छ लोग तो बड़ी गहराई से उनका अध्ययन करते हें और उसके प्रवक्ता भी बन जाते हें .
इतना सब कुछ करने के बाबजूद हम उन बातों को जीवन में उतार नहीं पाते हें .
उतार क्या नहीं पाते , हम उन्हें करने लायक ही नहीं मानते , हम उन्हें व्यवहारिक ही नहीं मानते .
हम मानते कि उन बातों को जीवन में उतारने से जीवन चल ही नहीं सकता है .
हम मानते हें कि वे बातें हमारे लिए हें ही नहीं , ये तो भगवान् की बातें हें , संतों और महात्माओं की बातें हें .
इस प्रकार हमारा द्वैध व्यक्तित्व (double personality) वाला जीवन चलता रहता है .
बातें बड़ी-बड़ी और कर्म निकृष्ट .
हाँ यह सत्य भी है कि जो लोग उन बातों को व्यवहार में , जीवन में उतारते हें वे संत-महात्मा बन जाते हें , भगवान् बन जाते हें , पर हमें भी तो संत और भगवान् बनना है न ?
हमें क्यों नहीं बनना है संत या भगवान् ?
कुछ विरले लोग होते हें जो यह समझ पाते हें और मानते हें की ये बातें जीवन में उतारने के योग्य हें , व्यावहारिक हें और उतारी जानी चाहिए . ऐसे लोग आत्मकल्याण की दिशा में आगे बड़ जाते हें .
इस प्रकार हम पाते हें कि एक गहरा कुसंस्कार , एक गलत मान्यता कि " बातें करने की बातें कुछ और होती हें और जीवन में अपनाने की बातें कुछ और होती हें " हमें संसार में भटकाता रहता है , हमारा कल्याण नहीं होने देता है .
बचपन में मैं अच्छे-अच्छे फलों से सजी हुई बड़ी -बड़ी दुकाने देखता था पर बहां कभी कोई ग्राहक फल खरीदता हुआ दिखाई नहीं देता था , वहीं दूसरी ओर फुटपाथ पर फलों के टोकरे लेकर बैठे हुए लोगों की दुकानें हमेशा ही ग्राहकों से भरी रहती थीं . यह सब देखकर मेरे बाल मन पर एक छाप पड़ गई की बे दुकानें फलों की प्रदर्शनी हें और ये दुकानें फल खरीदने के लिए हें . बे फल भी खरीदे जा सकते हें यह मेरी कल्पना में भी नहीं आया और गहरी जड़ जमा चुके उन संस्कारों को उखाड़ फेकने के लिए मुझे भाई मशक्कत करनी पडी .
हमें आत्मा - परमात्मा की बातों के बारे में भी अपना यह संस्कार बदलना होगा .
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