Wednesday, May 29, 2013

अरे ! इन्हीं झंझटों से बचने के लिए ही तो घर छोड़ा था , फिर इसी में उलझ गए तो क्या फायदा ?

जब समाज के आध्यात्मिक नेता ( गृह त्यागी संत लोग ) भी जनता के नित प्रति के दुःख दर्दों ( जैसे कि भूंख - प्यास , धंधा - रोजगार , स्वास्थ्य , सुरक्षा , आवास , शिक्षा , शादी-विवाह , बिबादों का निपटारा , पारिवारिक समस्याएं आदि ) को दूर करने के प्रयासों में जुट जाते हें और लोगों को ऐसा ही करने के लिए प्रेरित करने लगते हें तो मुझे बड़ी कोफ़्त होती है , निराशा होने लगती है .
अरे ! इन्हीं झंझटों से बचने के लिए ही तो घर छोड़ा था , फिर इसी में उलझ गए तो क्या फायदा ?
फायदा नहीं , पर नुकसान है .
अपने एक घर की समस्याएं त्यागीं और सारे जहान की समस्याये ओढलीं अपने सर पर .
" अरे राख ही खानी थी तो घर के घूरे की क्या बुरी थी ? "
इसका तो स्पष्ट मतलब यह हुआ कि बस आपको भी संसार के प्रतिकूल संयोगों में ही दुःख नजर आता है और अनुकूल संयोगों में सुख , बस सामान्य मानव और जीवों की तरह .
द्रष्टि तो संयोगाधीन ही रही , संयोगों के गुलाम तो बने रहे  ?
फिर आप कैसे वैरागी , कैसे गृह त्यागी , कैसे आत्मार्थी , कैसे साधक , कैसे हितोपदेशी ?
फिर तो आप संसार में ही उलझने और उलझाने बाले बने रहे  ?
उस तथ्य का क्या हुआ कि -
" एक द्रव्य दुसरे द्रव्य को स्पर्श ही नहीं करता , सुखी-दुखी नहीं करता .
संयोग क्षणिक हें और आत्मा अनादि-अनंत .
क्षणिक संयोगों की क्या चिंता करनी ? वे तो स्वकाल में आयेंगे और स्वकाल में ही चले भी जायेंगे , स्वत: ही .
संयोगों के जुटाने या मिटाने में तेरा कोई काम नहीं है . "
अरे ! संतों को संयोगाधीन दुःख तो दुःख लगते हें और ही संयोगाधीन सुख सुख लगते हें , उनके लिए तो संसार दुःख है और मुक्ति सुख .
संतों के लिए स्वरूप की सम्पूर्णता सुख है और वर्तमान की पामरता दुःख , अन्तर्द्रष्टि सुख है और बहिर्मुखी द्रष्टि दुःख .
संतों के लिए वस्तु स्वरूप की स्वीकृति सुख है और अस्वीकृति दुःख .
संत लोग यदि जनसामान्य को अपने मार्ग की और प्रेरित तो  करें और स्वयं संसार के बहाव में बह जाएँ तब मोक्षमार्ग कौन प्रशस्त करेगा ?
इसका सबसे बड़ा नुकसान तो यह होता है कि लोग आपको धर्मात्मा समझते हें और आपके कृत्यों को धर्म .
वे भोले लोग भी आपको देखकर इन्हीं घर - गृहस्थी के गोरख धंधों में ही लगे रहते हें और इन कामों को धर्म मान लेते हें और खुद को धर्मात्मा .
इस तरह सच्चे धर्म की तो खोज ही खो जाती है , खोज बंद ही हो जाती है .
क्या यह महा अनर्थ और भयंकर अपराध नहीं ?
क्या यह मानव जीवन इस तरह बिना धर्म और बिना आत्मा का स्वरूप समझे ही नष्ट नहीं हो जाएगा ?

इसका अपराधी कौन होगा ?

1 comment:

  1. सूदूर शिक्षाप्रद |
    क्या धर्म ममता मयी माँ जननी की शिक्षा संस्कार से बड़ा है

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