Thursday, September 25, 2014

यदि तुझे पाप त्यागना है तो अभिप्राय की वासना का त्याग कर ।


हमारे अभिप्राय में पड़ा धन का प्रेम ही मूल पाप है , इसके फलस्वरूप होने वाली धन्धे व्यापार की गतिविधियाँ और तत्सम्बन्धी चिन्तन तो उक्त अभिप्राय के परिणाम और विस्तार हैं ।
अभिप्राय में पड़ी वासना के फलस्वरूप व्यक्त और अव्यक्त में एक धन सम्बन्धी चिन्तन ही चलता रहता है और निरन्तर पाप बन्ध करता रहता है । चाहे हम धन कमायें या ना कमायें , व्यापार करें या ना करें ।
हमने बग़ीचे में आम का एक पेड़ रोप दिया , इस आशा में कि यह एक दिन फलेगा , बस अब हम कुछ भी नहीं करते हैं पर अभिप्राय की उस वासना से पापबन्ध तो होता ही रहता है ।
हम यह ना समझ बैठें कि ब्याज की इन्कम में किस बात का पाप ?
धन की आकांक्षा का पाप तो लगेगा ही ।
हम रुँध करें या ना करें , कमाइ हो या न हो , अभिप्राय का पाप तो लगेगा ही ।
यदि तुझे पाप त्यागना है तो अभिप्राय की वासना का त्याग कर ।
तेरा कल्यान होगा ।

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