इसी लेख में से _
"इस जीवन में मेरी जीवन शैली कैसी हो, इस जीवन में मेरा कर्त्रत्व क्या हो यह निर्णय करने के लिए यह निर्णय होना अत्यंत आवश्यक है कि मैं इस जीवन से पूर्व था कि नहीं और इस जीवन के बाद रहूँगा कि नहीं. मैं अनादि-अनंत हूँ या नश्वर?"
धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (चौदह्बीं कड़ी, गतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि “क्षेत्र की अपेक्षा, मुझ से प्रथक बाह्य संयोगों की अपेक्षा, देहादिक की अपेक्षा या वर्तमान विकारी परिणामों की अपेक्षा अपनी पहिचान करना किस प्रकार दोषपूर्ण है" इसी क्रम में आगे पढ़िए-
“मनुष्य” मात्र मेरा नाम नहीं है, यह तो मेरी (आत्मा) व शरीर की एक मिलीजुली अवस्था का नाम है,जिसे शास्त्रीय भाषा में “असमानजातीय पर्याय” कहा जाता है. इसलिए मैं “मनुष्य भी नहीं".
जिस प्रकार भारत एशिया अवश्य है, पर भारत मात्र ही एशिया नहीं है, एशिया तो भारत सहित अनेक देशों के समूह का नाम है.
(यह अपने आप में एक बड़ा बिषय है जिसपर प्रथक से चर्चा अपेक्षित है और हम यथास्थान यह चर्चा करेंगे ही.)
अब तक की बात तो आपको सहज ही स्वीकृत हो गई क्योंकि यह सब आपका अनुभूत बिषय है, हम सभी इस मनुष्य जीवन और इसकी विभिन्न अवस्थाओं से अच्छी तरह परिचित हें; पर अब इससे आगे की यात्रा कठिन है.
अरे भाई! जैसे हमारे अन्य नाम पल-दोपल, दिन-दोदिन, या बर्ष-दोबर्ष के लिए उपयुक्त से लगते हें उसी प्रकार यह “मनुष्य” नाम भी मात्र उन 100-50 बर्षों के लिए ही उपयुक्त लगता है, मात्र तब तक, जब तक हम इस मनुष्य देह में रहेंगे. न तो इससे पहिले और न ही इसके बाद; क्योंकि इस जन्म से पहिले भी हम तो थे ही, हालांकि उस समय हम मनुष्य न भी हों और इसी तरह इस जीवन के बाद भी हम तो रहेंगे ही चाहे मनुष्य न रहें. तब हमारा “मनुष्य” नाम भी सही कैसे कहा जाएगा?
अब यदि मैं यह कहूं कि नहीं; “मैं” मनुष्य भी नहीं, क्योंकि आज से १००० बर्ष पूर्व मैं मनुष्य नहीं था,हालांकि “मैं” तब भी था. आज से १००० बर्ष बाद भी मैं मनुष्य नहीं रहूँगा हालांकि “मैं” तब भी रहूँगा.
क्या यह आपको स्वीकृत होगा?
किसीको यह स्वीकार करने में तो परेशानी नहीं होगी कि “१००० बर्ष पूर्व मैं मनुष्य नहीं था और १००० बर्ष बाद भी मैं मनुष्य नहीं रहूँगा” पर यह बात स्वीकार करने से सभी हिचकने लगेंगे कि “मैं १००० बर्ष पूर्व भी था और १००० बर्ष बाद भी रहूँगा”.
क्यों?
क्योंकि हमारा ज्ञान सीमित है और हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है किसके द्वारा हम यह जान और पहिचान सकें कि विभिन्न समय और स्थान पर विभिन्न रूपों में (विभिन्न शरीरों या योनियों में) विद्यमान यह आत्मा एक ही है. तब आखिर हमें इस बात पर भरोसा कैसे हो?
बस इसीलिये अधिकतम लोग तो इस बात से साफ़-साफ़ इनकार ही कर देंगे कि इस जन्म से पूर्व भी“मैं” था और म्रत्यु के बाद भी “मैं” रहूँगा.
प्रश्न यह है कि हमारा यह इन्कार उचित है?
क्या यह उचित है, क्या यह हमारे हित में है कि हम अपनी ही सत्ता से ही इनकार करदें ?
आप कह सकते हें कि सत्ता सिद्ध ही कब हुई है जो हम स्वीकार करें.
पर मैं पूंछता हूँ कि यह भी कब और कहाँ सिद्ध हुआ है कि “मैं नहीं था और मैं नहीं रहूँगा” तब तू इन्कार भी कैसे कर सकता है?
अरे! लोक में तो तू ऐसी किसी वस्तु पर से अपना दावा कभी नहीं छोड़ता है जिनपर तेरा होने का तुझे शक भी हो जाए; उनके लिए तू सारी दुनिया के साथ अनेकों बर्षों तक लड़ता है, जीवन भर लड़ता है. यहाँ तेरी अपनी सत्ता, तेरा अपना अस्तित्व ही दाव पर लगा है और तुझे उसकी परवाह ही नहीं?
अरे भोले! तू ऐसा अविवेकपूर्ण व्यवहार कैसे कर सकता है? इससे तेरा त्रैकालिक हित-अहित जुडा हुआ है. यह तेरे हित की बात है. इसमें किसी और का नहीं तेरा अपना हित है, मात्र तेरा अपना.
अन्य सब काम छोड़कर सबसे पहिले यह निर्णय करना ही योग्य है, यही, मात्र यही तेरा (हमारा सबका) प्रथम कर्तव्य है और तेरी द्रष्टि में यह कोई कार्य ही नहीं है, यह तो इस जीवन में तेरी “to do” लिस्ट में ही नहीं है? क्या यह तेरा घोर अविवेक नहीं है? क्या यह तेरी अपनेआप के प्रति घोर उपेक्षा नहीं है?
यदि इसे नहीं तो फिर शत्रुता कहते किसे हें?
क्या यह तेरा स्वयं अपने प्रति घोर शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं है?
अरे! तेरा सबकुछ लुटा जारहा है, तू पूरा का पूरा लुटा जारहा है और तुझे होश ही नहीं है!
अरे! इसे ही तो अनन्तानुबन्धी क्रोध (अनंतानुबंधी कषाय) कहते हें.
“मैं इस मनुष्य जीवन के पूर्व भी था और इसके बाद भी रहूँगा” हमारे कल्याण के लिए, हमारे हित में इस तथ्य की स्वीकृति ही सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि तभी मैं अपने (आत्मा के) त्रैकालिक अविनाशी कल्याण के लिए प्रवृत होउंगा और अपना समय मात्र अपने आज के लिए, अपनी वर्तमान पर्याय के लिए,इस मनुष्य भव के हित के लिए बर्बाद नहीं करूंगा.
जाहिर है कि यदि मैं इस मनुष्य जीवन से पूर्व व इसके बाद अपने अस्तित्व से ही साफ़-साफ़ इनकार करता रहा या उसके बारे में सन्देह की स्थिति में ही बना रहा तो फिर मैं उसके बारे में कुछ सोचूंगा हीक्यों, उसके लिए कुछ करूंगा ही कैसे?
इस जीवन में मेरी जीवन शैली कैसी हो, इस जीवन में मेरा कर्त्रत्व क्या हो यह निर्णय करने के लिए यह निर्णय होना अत्यंत आवश्यक है कि मैं इस जीवन से पूर्व था कि नहीं और इस जीवन के बाद रहूँगा कि नहीं. मैं अनादि-अनंत हूँ या नश्वर?
प्रश्न तो यह है कि आखिर इस बात का निर्णय हो कैसे?
इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए पढ़ें इस श्रंखला की अगली कड़ी.
क्रमश:
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