परमात्म नीति (16) -
तब तो तू उनसे (उससे या अन्यों से) सर्वथा भिन्न और अन्य ही हुआ न?
- जब उसका कर्ता-भोक्ता वह स्वयं है तू या अन्य नहीं और तेरा कर्ता-भोक्ता तू स्वयं है वह या कोई अन्य नहीं, तब तो तू उनसे (उससे या अन्यों से) सर्वथा भिन्न और अन्य ही हुआ न?
फिर किस बात का हक़ जताता है उन पर, क्या अपेक्षा रखता है उनसे?
वे पर के सामान ही तो व्यवहार करेंगे, स्वत्व का व्यवहार कैसे करेंगे?
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
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