हमारी क्षमताएं जितनी कम होंगीं और आवश्यक्ताएं जितनी अधिक होंगीं हम उतना ही अधिक अन्य लोगों पर आश्रित होते जायेंगे और स्वाभाविक ही है कि हमें अपने स्वभाव के साथ उतने ही अधिक समझौते करने होंगे; यानिकि हम उतने ही अधिक पराधीन (दुखी) होते जायेंगे.
- परमात्म नीति (24)
- स्वतंत्रता की रक्षा मात्र क्षमता (सामर्थ्य) से ही की जा सकती है.
- हम सभी मनुष्य यूं तो स्वतंत्र प्राणी हें और अपने प्रकार से अपना यह जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हें; पर यह भी एक तथ्य है कि स्वतंत्रता की रक्षा मात्र क्षमता (शक्ति) से ही की जा सकती है.
शक्ति से मेरा तात्पर्य मात्र बाहुवल से नहीं, हमें हर प्रकार से शक्तिशाली होना होगा, बुद्धि से, चरित्र से, ज्ञान से, भावनाओं से. अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए हमें हर प्रकार से शक्तिशाली होना होगा.
यदि हम हर मामले में पूर्णत: शक्तिशाली नहीं होते हें तो हमें किसी न किसी की मदद की जरूरत महसूस होती है, बस यहीं से हमारी परतंत्रता की शुरुवात होती है.
मदद पाने के लिए हमें अन्यों से संपर्क स्थापित करने की आवश्यक्ता होती है और हम जिससे भी संपर्क स्थापित करने की कोशिश करते हें उसकी कुछ शर्तें होती हें.
आवश्यक नहीं कि शर्तें आपके समक्ष लिखित रूप से terms & conditions के format में ही प्रस्तुत की जाएँ या की भी जाएँ या न की जाएँ पर यह कौन नहीं जानता है कि हर व्यक्ति का अपना स्वभाव, सीमाएं और एक निश्चित प्रकार की कार्यप्रणाली होती है और वह उन्हीं सीमाओं में रहकर सब कुछ करता है. स्वाभाविक ही है कि हमें जिससे संपर्क स्थापित करना है उसकी अनुकूलताओं का ख्याल रखना होगा. बस यही इस दुनिया की अलिखित शर्त है जिसका पालन सभी को करना होता है.
जाहिर है कि अन्यों की शर्तों का पालन करना यूं तो किसी को भी इष्ट नहीं होता है न? बस यही हमारी विवशता है और यही हमारी गुलामी की शुरुवात.
अपनी आवश्यक्ताओं की पूर्ति हेतु हम जिससे भी संपर्क स्थापित करने का प्रयास करेंगे उसकी शर्तें हमें बंधन में बांधती हें, उसके लिए हमें अपने स्वभाव से समझौता करना पड़ता है. हमारी क्षमताएं जितनी कम होंगीं और आवश्यक्ताएं जितनी अधिक होंगीं हम उतना ही अधिक अन्य लोगों पर आश्रित होते जायेंगे और स्वाभाविक ही है कि हमें अपने स्वभाव के साथ उतने ही अधिक समझौते करने होंगे; यानिकि हम उतने ही अधिक पराधीन (दुखी) होते जायेंगे.
उक्त तथ्य से यह स्पष्ट है कि आवश्यक्ताओं की पूर्ति हमें सुखी नहीं दुखी करती है, सुखी होने का मार्ग आवश्यक्ताओं (इक्षाओं) की पूर्ति नहीं, इक्षाओं का अभाव है.
हमारा प्रयास हमेशा आवश्यक्ताओं की पूर्ति करने का रहता है, आवश्यक्ताएं कम करने की ओर किसी का ध्यान जाता ही नहीं तब हमारे दुःख कम कैसे होंगे, हम सुखी कैसे होंगे?
हम दुखी हें और हम सुखी होना चाहते हें पर अनजाने ही हमारे सुखी होने के प्रयास हमें और अधिक दुखी ही करते रहते हें, यदि हमारे प्रयासों की दिशा ही गलत होगी तो परिणाम कैसे सही होंगे ?
यदि हम चाहते हें कि हमें कमसे कम समझौते करने पड़ें तो हमें अपनी आवश्यक्ताओं को सीमित करना होगा, हमें अपनी आवश्यक्ताओं को अपनी क्षमताओं के दायरे तक सीमित करना होगा, तब हमें न तो किसी अन्य पर आधारित रहना होगा और न ही अपने स्वभाव के विपरीत समझौते करने होंगे, तब हम स्वत: ही सुखी हो जायेंगे.
यह क्रम जारी रहेगा.
उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन
अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
- घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे
जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब
तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही
नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को
इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का
श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
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