-परमात्म नीति - (25)
- इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि भीख किससे माँगी गई? भगवान् से ही सही. मांगने वाला तो भिखारी ही होता है, हम भी भिखारी ही हें.
हालात चाहे कुछ भी क्यों न हों, बे सब भिखारी ही हें जो किसी से भी, कुछ भी मांगते हें.
सिर्फ मांगने वाला ही नहीं, किसी अन्य की वस्तु की चाहत रखने वाला भी "भिखारी" ही तो है! यह उसके अन्दर व्याप्त भिक्षावृत्ति ही है जो उसके अन्दर किसी अन्य की वस्तु पाने की चाहत पैदा करती है.
मात्र इतना ही नहीं, यही भिक्षावृत्ति तब "चौर्यवृत्ति" में बदल जाती है जब हम चुपके से (छुपकर) उसे पाने की चाहत करने लगते हें और हमारी यही वृत्ति तब "डकैती" की वृत्ति बन जाती है जब हम उसे वलात किसी से छीन लेना चाहते हें.
किसी परवस्तु के संयोग से अपनेआप को बड़ा (महान) मानना ही "बेईमानी" है और परवस्तु का उपभोग ही "वलात्कार".
परवस्तु किसी को देकर उसे प्रसन्न करने की भावना "हेराफेरी" है और बदले में कुछ पाने की कोशिश ही "रिश्वतखोरी" है.
परपदार्थों के सेवन से होनी वाली प्रसन्नता की अनुभूति ही "भ्रष्टाचार" है और परपदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना ही हमारे अन्दर व्याप्त "गुलामवृत्ति" है.
जिनकी चर्चा हम कर रहे हें वे परपदार्थ कोई अन्य, मात्र दूर की वस्तुएं ही नहीं, वरन "निज भगवान्आत्मा" और उसमें व्याप्त अनन्तगुणों के अलावा अन्य सब परद्रव्य ही हें.
हमारे अन्दर व्याप्त अनन्तगुण अभेदरूप से तो स्वद्रव्य हें पर "गुणभेद" परद्रव्य है.
क्यों ?
क्योंकि गुणभेद भी आत्मानुभूति के लिए द्रष्टि का बिषय नहीं है.
उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
- घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
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