- परमात्म
नीति – (31)
- सल्लेखना
साधक की म्रत्यु पर (मौत के खौफ
पर एवं जीवन के लोभ) विजय है, यह मौत की
लालसा
नहीं.
अरे!
मृत्यु के महाखौफ में , मरते-मरते जीवन बीता
अहो!
कोई पल इस जीवन का, इसके भयसे नहीं था रीता
एक
समय की इस म्रत्युने,लीललिया जीवन का छिन-छीन
मुक्त
हुआ मैं,छोड़ चला जग, है आज मौत का अंतिमदिन
- सामान्यजन म्रत्यु के भय से भयाक्रांत मरमरकर जीवन
जीते हें,
यहाँतक कि उनमें से कई अभागे तो मौत के खौफ से आक्रांत
होकर, आत्मघात तक
कर बैठते हें.
“जीवन और म्रत्यु” के स्वरूप से परिचित ज्ञानीसाधक उनके
यथार्थ को स्वीकार कर जीवन की लालसा और म्रत्यु के भय से
रहित जो अनुशासित, सौम्य,
सदाचारी, सात्विक, स्वाध्यायी
साधक का शांत व संयमित जीवन जीते हें व आयु पूर्ण होनेपर
सहज ही स्वाभाविक म्रत्यु को प्राप्त होते हें, वे धन्य हें.
सहज ही स्वाभाविक म्रत्यु को प्राप्त होते हें, वे धन्य हें.
यही सल्लेखना है.
सल्लेखना न तो जीवन का लोभ है और न ही, मौत का भय या
म्रत्यु को आमंत्रण.
----------------
उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.
- घोषणा
यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.
यह क्रम जारी रहेगा.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
No comments:
Post a Comment