न्यायालय द्वारा सल्लेखना (संथारा) को गैरकानूनी
घोषित किये जाने के सन्दर्भ में-
क्या न्यायालय के तर्क सही और उचित हें, क्या यही तर्क सभी लोगों, परम्पराओं और
धर्मों पर सामान रूप से लागू किये जायेंगे?
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
- क्या अलिखित क़ानून क़ानून नहीं होता है? क्या परम्परा से देश और समाज नहीं चलता है? हमारे देश में जो कुछ भी चल रहा है, क्या
वह सबकुछ हमारी क़ानून की किताबों में लिखा है?
क्या सभी धर्म और धार्मिक
आस्थाओं की समीक्षा सरकार, संसद,
क़ानून और न्यायालय ने की है/उन्हें प्रमाणित ओर कन्फर्म किया है?
यदि नहीं तो क्या अब करेगी?
यदि नहीं तो फिर जैनधर्म ही
क्यों? सल्लेखना ही क्यों?
क्यों नहीं अन्य
धर्मों/साम्प्रदायों की वे सब मान्यतायें, परम्पराएं और गतिविधियाँ गैर कानूनी घोषित करदी जाएँ और उनके
संचालन के लिए सरकार और समाज को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाए. जो मानवता की
श्रेणी में नहीं आती हें और किसी न किसी रूप में सविधान और क़ानून का उलंघन करती
हें.
क्या ऐसा किया जा सकता है? क्या ऐसा किया जाएगा?
(मैं स्वयं कई कारणों से ऐसी परम्पराओं, गतिविधियों और विश्वासों का उल्लेख नहीं कर रहा हूं, यूं भी एक व्यक्ति हर बात का विशेषज्ञ हो भी नहीं सकता है, सम्बन्धित लोग उपयुक्त विद्वानों से संपर्क करके खोजने का प्रयास करेंगे
तो ऐसी अनेकों विसंगतियां सामने आ जायेंगीं)
- एक बात और! खतरनाक तो है, पर कहनी तो
होगी.
कोर्ट कहता है कि जैन समाज यह साबित करने के लिए
पर्याप्त प्रमाण पेश नहीं कर सका कि जैन शास्त्रों में सल्लेखना (संथारा) का विधान
है.
(हालांकि समाज के वकील कहते हें कि पर्याप्त प्रमाण
पेश किये गए, जिनका नोटिस कोर्ट ने नहीं लिया)
अब भी क्या बिगड़ा है, मैं
पूंछता हूँ कि यदि अब भी लिखित प्रमाण पेश कर दिए गए तो क्या कोर्ट सल्लेखना को संवैधानिक
तौर से मान्यता दे देगा?
यदि मान्यता देने का आधार यही ही तो, यदि किसी धर्म के
ग्रथों में नरवलि देने की क्रिया को धार्मिक क्रिया कहा गया हो तो क्या कोर्ट उसे
भी संवैधानिक और कानूनी करार देगा?
यदि शास्त्रों में वर्णित परम्पराएं और क्रियाकांड
उनके वैधानिक घोषित होने के कारण नही हो सकते हें तो, शास्त्रों में
उनका न पाया जाना कैसे उनके निषेध का कारण बन सकता है?
मैं क़ानून का विशेषज्ञ नहीं हूँ, मैं नहीं जानता हूँ कि मेरे तर्कों की क़ानून की नजर में क्या
वैधता/उपयोगिता है. यदि है तो इनका उपयोग किया जा सकता है, यदि
नहीं तबभी ये विचारणीय बिंदु तो हें ही.
सल्लेखना (संथारा) का मामला जैनधर्म पर पहिला और
अंतिम आक्रमण नहीं है, यदि इस सिलसिले को यहीं नहीं रोका
गया तो एक के बाद एक अनेकों बिषय उठेंगे और धर्म के सामने धर्मसंकट खडा होगा.
इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिए इसी ब्लॉग पर मेरा अन्य लेख भी पड़ने योग्य है, पढने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें-
http://parmatmprakashbharill.blogspot.in/2015/08/blog-post_15.html
No comments:
Post a Comment