Friday, September 11, 2015

परमात्म नीति - (48) - आखिर इनमें और हममें फर्क ही क्या है ? हम जैसे ही तो हें ये सब भी, तब ये महान क्यों और हम सामान्य क्यों?

कल परमात्म नीति -(47) में हमने पढ़ा कि -

सफलता के लिए आवश्यक हलांकि सबमें (बहुतायत लोगों में) पाए जाते हें, पर प्रयत्नों की सही दिशा के

अभाव में वे सफल नहीं हो पाते हें. अब आगे पढ़िए -


- परमात्म नीति - (48) 

- आखिर इनमें और हममें फर्क ही क्या है ?
- हम जैसे ही तो हें ये सब भी, तब ये महान क्यों और हम सामान्य क्यों? 





मैंने महान लोगों के बीच ही जन्म लिया, पला और बढ़ा. 

अनेक क्षेत्रों के अनेकों महान लोगों के निकट संपर्क में आया, उनके जीवन और उसमें घटित होने वाले छोटे-बड़े सभी प्रकार के घटनाक्रमों का साक्षी रहा, मात्र साक्षी भाव से ही नहीं वरन भोक्ता भाव से भी.

मुझे ऐसे ही अनेकों लोगों की सद्भावना, शुभेक्षा, आशीर्वाद और सक्रिय सहयोग भी प्राप्त है, वैचारिक भी और भौतिक भी. उनका अंतर-बाहर सबकुछ मेरे समक्ष प्रकट है.

मैंने पाया कि उनमें किसी भी जनसामान्य की अपेक्षा कुछ भी तो विशेष नहीं, वही कमजोर काया, वही सीमित समय, वही सीमित साधन एवं संसाधन, वही भारी बिषमताएं एवं विपरीतताएं, वही विरोध व प्रतिरोध, वही सुखदुख और दर्द का अहसास, वही संवेदनायें व भावनाएं. सबकुछ बैसा ही तो है, फिर वे महान कैसे और हम सामान्य क्यों ?

मैंने सोचा कि हो न हो सिर्फ ये ही ऐसे हों, पर सभी ऐसे नहीं होते होंगे,

सभी ऐसे कैसे हो सकते हें; महान लोग तो महान ही होते होंगे न ? बस
इसी से प्रेरित होकर मैंने इतिहास खंगाल डाला, महापुरुषों की जीवनियाँ और आत्मकथाएं पढीं, पर वही “ढाक के तीन पात”; मैंने उन्हें भी बैसा ही पाया जैसे ये हें.

मैंने पाया कि सभी महान लोग, चाहे वे ऐतिहासिक हों या वर्तमान; सभी

सर्वसामान्य के सामान ही सामान्य लोग हें. सभी को भूंख-प्यास और
सर्दी-गर्मी सताती है, सभी के दिन में कुछ घंटे दिन और कुछ घंटे रात आती है, सभी थकते और सोते हें, दर्द में कराहते हें और प्रसन्न होकर
खिलखिलाते हें, एक-एक चोट और खरोंच सभी को एकसा दर्द देती है और छींक और खांसी एकसा परेशान करती है. सबके पास शक्ति, समय, धन और साधनों की सीमाएं हें. सभी में भावनाएं हें जो उन्हें उद्वेलित करती हें और संवेदनाएं हें जो उन्हें झिंझोड़ती हें. सभी में राग और द्वेष भी विद्यमान हें जो उनके विवेक को प्रभावित करते हें, सभी के कुछ, मात्र
कुछ अपने और शेष सब पराये हें जो उनमें आत्मीयता और हेयता का भाव पैदा करते हें. यही सबतो हमारे साथ भी होता है, फिर हम उपलब्धि विहीन और वे उपलब्धिवान क्यों, फिर हम सब सामान्य कैसे और वे महान क्यों ?

कभी-कभी तो ये कथित महान लोग बड़े कमजोर साबित होते हें जो किसी की छोटीसी पीड़ा देखकर विचलित हो जाते हें, अपने प्रति विरोध के मामूली स्वर सुनकर अतिक्रोधित या खेद्खिन्न हो जाते हें या किसी के सामान्य से विश्वासघात से बिखर जाते हें. हम जैसे सामान्य लोगों के साथ तो रोज ही, कदम-कदम पर ऐसा होता ही रहता है पर हमें तो इससे फर्क ही नहीं पड़ता है.


प्रश्न यह है कि जब हम सब एक जैसे ही हें तो क्यों और कैसे हममें से ही

एक व्यक्ति महान उपलब्धियों के साथ महान बन जाता है और दूसरा जीवन के अंतिम पायदान पर खड़ा होता है ?

यही जानने के लिए कल पढ़िए , परमात्म नीति की (49) बीं कड़ी , कल -

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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.

घोषणा 


यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.

यह क्रम जारी रहेगा. 

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

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