धर्म के दश लक्षणों में दशबां
उत्तमब्रह्म्मचर्य धर्म -
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
इसी आलेख से -
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
इसी आलेख से -
"अरे भोले !
तुझे यह अहसास भी है क्या !कि जब ललचाई हुई, याचक की निगाहों से तू परकी ओर ताकता है तब सबसे बड़ा अपराध करता है.
बस ! यही तेरा वह अपराध है जिसके कारण तू संसार में भटक रहा है."
उत्तमब्रहम्मचर्य धर्म
परिणति पर में भटकना ही,आत्मा का घात है
अब्रह्म्म कहते हें इसेही,सबसे बड़ा यह पाप है
पंचेन्द्रियों के भोग अरु , भोगने की भावना
भटका रही संसार में, परद्रव्य की यह कामना
सम्यक्त से आतमा को,परसे रहित पहिचानना
आतमा में रमण करना, बस उसे अपना मानना
निज आत्मा में रमण बस, धरम की है श्रेष्ठता
है यही उत्तमब्रहम्मचर्य,ये धरम की पराकाष्ठा
पदों के अर्थ -
परपदार्थों में परिणति का भटकना आत्मा के स्वभाव का घात है. यही व्यभिचार है और सबसे बड़ा पाप है.
परद्रव्यों को पाने और भोगने की कामना ही अनादिकाल से इस जीव को संसार में भटका रही है.
सम्यग्दर्शन पूर्वक आत्मा को परपदार्थों से प्रथक पहिचानकर, निज भगवान्आत्मा को ही "मैं " मानकर उसीमें लीन होना ही उत्तमब्रहम्मचर्य धर्म है, ऐसा उत्तमब्रहम्मचर्य धर्म, धर्म की पराकाष्ठा है.
अरे भोले !
तुझे यह अहसास भी है क्या !कि जब ललचाई हुई, याचक की निगाहों से तू परकी ओर ताकता है तब सबसे बड़ा अपराध करता है.
बस ! यही तेरा वह अपराध है जिसके कारण तू संसार में भटक रहा है.
तेरी वही इन्द्रियाँ जिन्हें तू अपना मित्र और ज्ञान में सहायक मानता है, तेरे सबसे बड़े अपराध का उपकरण हें, क्योंकि उन्हीं की सहायता से तू पर में प्रवेश करता है.
इन्द्रियाँ मात्र रूपी परपदार्थों को अपने ज्ञान का बिषय बनाती हें, अपने अरूपी आत्मा को नहीं, इसीलिये इन्द्रियज्ञान तुच्छ है, हेय है.
याचनाभरी निगाहों से, परपदार्थों में सुख की कल्पना से पर की ओर ताकना ही व्यभिचारी वृत्ति है.
अनादिकाल से उक्त वृत्ति ने ही आत्मा का घात किया है, संसार में भ्रमाया है.
अनन्तगुणों के स्वामी अपने निज भगवान्आत्मा के अनन्त वैभव को जानकार/पहिचानकर, अपनी वृत्तियों को निज में ही केन्द्रित करना उत्तमब्रहम्मचर्य धर्म है.
सम्यगचारित्र युक्त ऐसा उत्तमब्रहम्मचर्य धर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ है, धर्म की पराकाष्ठा है.
जगत में मात्र स्पर्शइन्द्रिय के बिषय को ब्रहम्मचर्य का घातक माना जाता है पर यह सही नहीं है, क्योंकि मात्र स्पर्शइन्द्रिय का बिषय ही आत्मा के स्वरूप का घात नहीं करता है वरन सभी इन्द्रियाँ ही आत्माके उपयोग को बाहर भटकाती हें, उसके स्वरूप का घात करती हें.
चूंकि सभी इन्द्रियाँ स्पर्शनइन्द्रिय में शामिल हें इसीलिये स्पर्शनइन्द्रिय के बिषय को ब्रहम्मचर्य का घातक कहा गया है.
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