Monday, September 28, 2015

क्षमावाणी : दश दिनों तक धर्म के दशलक्षणों की आराधना का प्रतिफल

धर्मके दशलक्षणों की आराधना का परिणाम -

क्षमावाणी -

इसी आलेख से -

- "क्षमा करने का तात्पर्य है भविष्य में दुष्कृत्य न करने का संकल्प और क्षमा मांगने का तात्पर्य है पूर्वकृत दुष्क्रत्यों के प्रति प्रायश्चित."

- "क्षमा करने से हम अपनी कषायों को क्रियान्वित (execute) करने के अनन्त भारसे मुक्त होकर हम निर्भार होजाते है और क्षमा मांगने से (मिलनेपर) हम सामने वाले की ओर से अपने अनिष्ट की आशंका का त्यागकर निर्भय हो जाते हें.
 उक्त दोनों ही परिणाम किसी और के नहीं स्वयं हमारे अपने हित में हें."









क्षमावाणी 

त्यागना  क्रोधादि  का  , नाम  है  उत्तमक्षमा 
धर्मकी आराधना का,परिणाम है उत्तमक्षमा 
धार मनमें बैर अरु ,क्रोधादिकर जगमें भ्रमा
निराकुल हुआ  मैं आज , धारउर  उत्तमक्षमा 

उपकार मेरा आत्मा पर, जगतके सबजीव पर 
क्रोधबैर परित्यागकर,समभाव चितमें धारकर 
क्षमा मैं करता सभीको, अपने लिए मांगूं क्षमा 
यह धर्मधारण स्वयं का, यह नहीं कोई याचना 




पदों का अर्थ -

क्रोधादि (क्रोध, मान , माया, लोभ) कषायों का त्याग करना उत्तम क्षमा धर्म है. यह धर्म की आराधना का स्वाभाविक परिणाम है. आजतक यह जीव उक्त कषायों के वशीभूत होकर संसार में भ्रमता रहा पर आज मैं अपने ह्रदय में उत्तमक्षमा धारण करके निराकुल हुआ हूँ.

आज मैं क्रोधादि कषायों का त्याग करके व अपने चित्त में समताभाव धारण करके सबके प्रति स्वयं क्षमाभाव धारण करता हूँ और सभी से क्षमायाचना करता हूँ. मेरा यह कृत्य मेरी अन्तरंग धर्मधारण की प्रक्रिया है जगत से कोई याचना नहीं है. 


क्षमा करने का तात्पर्य है भविष्य में दुष्कृत्य न करने का संकल्प और क्षमा मांगने का तात्पर्य है पूर्वकृत दुष्क्रत्यों के प्रति प्रायश्चित.

क्षमा करने से हम अपनी कषायों को क्रियान्वित (execute) करने के अनन्त भारसे मुक्त होकर हम निर्भार होजाते है और क्षमा मांगने से (मिलनेपर) हम सामने वाले की ओर से अपने अनिष्ट की आशंका का त्यागकर निर्भय हो जाते हें.
 उक्त दोनों ही परिणाम किसी और के नहीं स्वयं हमारे अपने हित में हें.

क्षमा करना और क्षमा मांगना कोई लेन-देन की क्रिया नहीं है, इसमें कई अलग-अलग लोग शामिल नहीं हें. 
यह आत्मा का धर्म है, धर्म स्वाधीन होता है इसमें किसीपर निर्भरता की आवश्यक्ता नहीं. धर्म की आराधना हमने की है, कषायों की मंदता हमें हुई है और इसलिये क्षमाभाव हमारे चित्त में प्रकट हुआ है, यदि कोई क्षमा न मांगे तो क्या हम क्षमा भाव धारण ही नहीं कर सकेंगे ? या कोई हमें क्षमा ही न करे तो क्या निजात्मतत्व का आश्रय हमें निर्भर करने में समर्थ नहीं होगा? 

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