इसी आलेख से -
"जैसे-जैसे सभी लोग और अन्य सब संयोग मेरे प्रति अनुकूलतम परिणमित होते हें, मैं गहरे, औरगहरे अवसाद में डूब जाता हूँ, कि कौनजाने कब यहसब छूट जाएगा, बिखर जाएगा.
यदि सच पूंछाजाए तो यूं रोने-विलखने और अफ़सोस करने के लायक मेरेपास कुछ भी नहीं है पर अब मैं इस आशंका से पीड़ित हूँ कि ये सब अनुकूल संयोग, यह देह जाने किसदिन, किसपल छूट जायेंगे और मेरा नजाने क्या होगा."
धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए - (सोलहबीं कड़ी)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
पिछली कड़ी में हमने पढ़ा कि- "किसप्रकार “मैं कौन हूँ” इस तथ्य के यथार्थ निर्णय के अभाव में मेरा मात्र अनादिकाल से आजतक का समय ही नहीं वरन यह जीवन ही बिना निष्कर्ष ही बीत रहा है, बचपन गया, किशोरावस्था भी बीती, अब देखें जबानी और वृद्धावस्था में हमारे साथ क्या घटित होता है."
पढ़िए-
कितनी आकर्षक थी यह जबानी! मुझमें ऊर्जा अपने उत्कर्ष पर थी, अब मैं पहिले की भांति (बचपन और कैशोर्य अवस्था) कमजोर व किसीपर निर्भर भी न रहा था, भोगों के प्रचुर साधन भी उपलब्ध थे और भोगने की क्षमता भी; पर क्या मैं उन्हें भोग पाया?
नहीं.
क्यों नहीं?
क्योंकि जीवन में भले ही जबानी हो पर कल्पना में तो बुढापा दस्तक देने लगा था न!
मैंने औरों की रुग्ण, कमजोर, लाचार, असहाय और करुण उस वृद्धावस्था को देख लिया था जो कि मेरा भी संभावित भविष्य था.
मैं अपनेआपको उस करुण स्थिति में नहीं धकेलना चाहता था और इसलिए बस; मैं सोना तो चाहता था पर सोया नहीं. मैं खाना भी चाहता था पर मैंने खाया नहीं.
हालांकि तब नींद भी बहुत गहरी हुआ करती थी और कुछभी खाओ सब पच जाता था, पर मैं मात्र इसलिए भूँखा ही बना रहा, इसीलिये मैं चैन से सो भी नहीं सका क्योंकि मुझे तो अपने भविष्य की चिंता थी न!
मैं हरहाल में स्वस्थ्य ही बने रहना चाहता था इसलिए मखमली सेजों को छोड़कर मैं सुबह मुंहअँधेरे उठकर पथरीली सड़कों पर दौड़ लगाता. घोड़े की तरह दौड़ता और कुत्ते की तरह हांफता.
सामने राजसी पकवान सजे रहते और मैं दरिद्री की भाँति नापतोल कर रूखा-सूखा, थोड़ा, बहुतथोड़ा खाता और ठहरजाता.
स्वस्थ्य बने रहने की चाहत में मैं अपने वर्तमान स्वस्थ्यजीवन के स्वर्णिम पल जी ही कब पाया?
मैं भविष्य के लिए कमाने में इतना व्यस्त होगया कि कमाए हुए को भोगने का न तो होश ही रहा और न ही अवकाश; क्योंकि मुझे अपना आर्थिक भबिष्य जो सुरक्षित करना था.
इसप्रकार सदैव ही मेरी भविष्य की चिंता और भविष्य के बारे में मेरा चिंतन मेरे वर्तमान को आंदोलित किये रहा.
मेरा प्रवलपुण्योदय तो देखिये! मेरे साथ मेरे बुढापे में ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ जो अधिकतम लोगों के साथ होता है, इसके विपरीत मुझे अपनी इस ब्रद्धावस्था में जगत का वह सारा वैभव और अनुकूलताएँ प्राप्त हुईं जो इस जगत में संभव हें; सत्ता, यश, निरोगीकाया, घर में माया, अनुकूल पत्नी और आज्ञाकारी पुत्र तथा भरापूरा परिवार.
यदि यही सब हमें सुखी कर सकते हें तो मुझे इस दुनिया का सबसे सुखी प्राणी होना चाहिए.
पर नहीं! मुझे तो पल भर के लिए चैन और शुकून नहीं है.
जैसे-जैसे सभी लोग और अन्य सब संयोग मेरे प्रति अनुकूलतम परिणमित होते हें, मैं गहरे, औरगहरे अवसाद में डूब जाता हूँ, कि कौनजाने कब यहसब छूट जाएगा, बिखर जाएगा.
यदि सच पूंछाजाए तो यूं रोने-विलखने और अफ़सोस करने के लायक मेरेपास कुछ भी नहीं है पर अब मैं इस आशंका से पीड़ित हूँ कि ये सब अनुकूल संयोग, यह देह जाने किसदिन, किसपल छूट जायेंगे और मेरा नजाने क्या होगा.
क्यों हुआ यह सब?
यह इसलिए हुआ क्योंकि उस वक्त वर्तमान का “मैं” जो था, वह मैं रहने वाला नहीं था, क्योंकि सचमुच तो वह “मैं” था ही नहीं न!
उसवक्त मैं शिशु या बालक था पर मैं कुछ ही समय में बालक रहने वाला नहीं था.
जब मैं किशोर था, तब कुछ ही बर्षों में मैं किशोर भी रहनेवाला नहीं था.
जब मैं जबान हुआ तो मुझे मालूम था कि यह जबानी अधिक समय टिकने वाली नहीं, यह “मैं” नहीं.
क्योंकि मैं वह नहीं था इसलिए मैं उसमें रम नहीं सकता था, उसमें मगन होकर गाफिल नहीं हो सकता था.
आज जब मैं अपने उत्कर्ष पर हूँ, अबतो मेरा संकट और गहरा गया है, अबतो मेरे सामने अस्तित्व का संकट ही आखडा हुआ है.
अबतक मुझे आने वाला कल दिखाई तो देता था, कुछ तो दिखता था! अबतो सिर्फ औरसिर्फ मौत ही दिखाई देती है और मौत के शिवाय कुछ भी दिखाई ही नहीं देता.
कल मैं परमात्म प्रकाश तो रहूंगा ही नहीं, मनुष्य भी नही रहूँगा, तब "मैं" क्या हो जाउंगा, मैं रहूँगा भी या नहीं?
कहीं इसीके साथ मेरा अस्तित्व ही तो ख़त्म नहीं हो जाएगा?
अब तक जो भी सही, जैसा भी सही, भविष्य तो दिखाई देता था, अस्तित्व तो खतरे में नहीं दिखता था! पर अब क्या?
इस प्रकार “मैं” को पहिचाने बिना ममत्व के अभाव में मैं स्वयं अपने लिए ही बेगाना ही बना रहा, अपना हुआ ही नहीं.
ऐसा क्यों हुआ? इसके कारणों की व्याख्या समझने के लिए पढ़ें इस श्रंखला की अगली (सत्रहबीं) कड़ी.
अगले अंक में -
No comments:
Post a Comment