Monday, October 19, 2015

परमात्म नीति - (67) - महानलोगों की द्रष्टि मात्र अपने लक्ष्य पर होती है

इसी आलेख से -

महानलोग लक्ष्यकेन्द्रित होते हें, उनकी द्रष्टि हमेशा अपने लक्ष्य पर होती है, वे कहीं अटकते नहीं, वे कहीं भटकते नहीं. 

सामान्यलोग अपने "उपलक्ष्यों" में ही इतने उलझे रहते हें कि न तो उन्हें अपने "लक्ष्य" के बारे में सोचने का अवकाश ही होता है और न ही उसकी प्राप्ति के लिए कुछभी करने की.
- लक्ष्य की साधना के लिए आवश्यक है कि जीवन बना रहे और निर्विघ्न चलता भी रहे ---------------- इस सबके लिए प्रतिदिन हमें लोग अत्यंत आवश्यक क्रियाएं सम्पन्न करने की आवश्यक्ता होती है उन्हें "उपलक्ष्य" कहते हें.-

महानलोग अपने जीवन सबसे महत्वपूर्ण पर्याप्त समय मात्र जीवन के लक्ष्य निर्धारित करने में व्यतीत करते हें. 
वे अनेक संभावनाओं पर विचार करते हें, उनके गुण-दोषों का विचार करते हें, उन्हें प्राप्त करने की अपनी क्षमताओं का आकलन करते हें, योजना बनाते हें, साधन जुटाते हें, सहयोगी एकत्र करते हें और फिर जुट जाते हें. 

द्रढ़ता पूर्वक निर्णय कर लेने के बाद वे अपने उपयोग के भ्रमाते नहीं हें. कभी अटकते नहीं, कहीं भटकते नहीं.
कमसे कम समय में अपने जीवन की अत्यावश्यक व अपरिहार्य आवश्यक्ताओं की पूर्ति करके अपना अधिकतम समय अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हें. एक साधक का सा जीवन जीते हें.
ऐसे लोगों का जीवन सार्थक व उपलब्धिपूर्ण होता है.

परमात्म नीति - (67)

by- परमात्म प्रकाश भारिल्ल


महानलोगों की द्रष्टि मात्र अपने लक्ष्य पर होती है  -








महानलोग लक्ष्यकेन्द्रित होते हें, उनकी द्रष्टि हमेशा अपने लक्ष्य पर होती है, वे कहीं अटकते नहीं, वे कहीं भटकते नहीं.


सामान्य लोग अपने लिए कोई लक्ष्य ही निर्धारित नहीं कर पाते हें. 
या तो इस ओर उनका ध्यान जाता ही नहीं, या जाता भी है तो वे कोई निर्णय ही नहीं कर पाते हें. 

सामान्यत: सामान्यलोग अपने "उपलक्ष्यों" में ही इतने उलझे रहते हें कि न तो उन्हें अपने "लक्ष्य" के बारे में सोचने का अवकाश ही होता है और न ही उसकी प्राप्ति के लिए कुछभी करने की.

हमें अपने इस जीवन में जो उपलब्ध करना है उसे अपने इस जीवन का "लक्ष्य" कहा जा सकता है. 
लक्ष्य की साधना के लिए आवश्यक है कि जीवन बना रहे और निर्विघ्न चलता भी रहे ताकि अपने लक्ष्य की सिद्धी के लिए पर्याप्त ऊर्जा मिल सके, समय रहे और मष्तिष्क भी भारहीन बना रहे. इस सबके लिए प्रतिदिन हमें लोग अत्यंत आवश्यक क्रियाएं सम्पन्न करने की आवश्यक्ता होती है उन्हें "उपलक्ष्य" कहते हें.

जगत के अधिकतम लोग मात्र "उपलक्ष्यों" के लिए ही जीते हें और मर जाते हें.
उपलक्ष्यों के लिए जीवन "पशु जीवन" के सामान ही है क्योंकि पशु तो मात्र उपलक्ष्यों में ही उलझे रहते हें, बस किसी तरह आज पेट भर जाए और दिन सुरक्षित बने रहकर कट जाए; या अधिक से अधिक सन्तति उत्पन्न करना, उनका लक्ष्य इतना ही रहता है.
यदि सूत्र रूप में कहा जाए तो- "अहार, निद्रा, भय और मैथुन"
इनके अलावा उनके सामने जीवन का कोई लक्ष्य होता ही नहीं है. 




सामान्य लोग यूं ही विचारहीन रहकर ही जीवन प्रारम्भ कर देते हें और विचारहीनता की अवस्था में ही जीवन व्यतीत भी करते हें. 
शांति से बैठकर विचार करने को वे वक्त की बरबादी मानते हें.
उक्त के विपरीत महानलोग अपने जीवन सबसे महत्वपूर्ण पर्याप्त समय मात्र जीवन के लक्ष्य निर्धारित करने में व्यतीत करते हें. 
वे अनेक संभावनाओं पर विचार करते हें, उनके गुण-दोषों का विचार करते हें, उन्हें प्राप्त करने की अपनी क्षमताओं का आकलन करते हें, योजना बनाते हें, साधन जुटाते हें, सहयोगी एकत्र करते हें और फिर जुट जाते हें. 

एक बार उक्त प्रक्रिया से गुजर जाने और द्रढ़ता पूर्वक निर्णय कर लेने के बाद वे अपने उपयोग के भ्रमाते नहीं हें. कभी अटकते नहीं, कहीं भटकते नहीं.

कमसे कम समय में अपने जीवन की अत्यावश्यक व अपरिहार्य आवश्यक्ताओं की पूर्ति करके अपना अधिकतम समय अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हें. एक साधक का सा जीवन जीते हें.

ऐसे लोगों का जीवन सार्थक व उपलब्धिपूर्ण होता है.

आगे पढ़िए -


"महानलोग प्रगतिशील होते हें "


कल 


 

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उक्त सूक्तियां मात्र सूचिपत्र हें, प्रत्येक वाक्य पर विस्तृत विवेचन अपेक्षित है, यथासमय, यथासंभव करने का प्रयास करूंगा.

घोषणा 


यहाँ वर्णित ये विचार मेरे अपने मौलिक विचार हें जो कि मेरे जीवन के अनुभवों पर आधारित हें.
मैं इस बात का दावा तो कर नहीं सकता हूँ कि ये विचार अब तक किसी और को आये ही नहीं होंगे या किसी ने इन्हें व्यक्त ही नहीं किया होगा, क्योंकि जीवन तो सभी जीते हें और सभी को इसी प्रकार के अनुभव भी होते ही हें, तथापि मेरे इन विचारों का श्रोत मेरा स्वयं का अनुभव ही है.

यह क्रम जारी रहेगा. 

 



- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

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