Wednesday, March 15, 2023

यदि आज सबकुछ तेरे प्रतिकूल है तो दोष किसका ?

jaipur, thursday, 19 th nov 2015, 7.30 am

यदि आज सबकुछ तेरे प्रतिकूल है तो दोष किसका ?
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

अरे भाई! यदि तुझे आज सबकुछ अपने प्रतिकूल दिखाई देता है तो व्यथित मत हो, समता धारण कर! मात्र यही एक उपाय है और यही तेरे हित में भी है.
तू अपनी प्रतिकूलताओं का आरोप संयोगों पर मढ़कर उनके प्रति द्वेष करता है, पर ज़रा पूर्वाग्रह से मुक्त होकर शांत चित्त से विचार तो कर कि तेरी यह मान्यता किस प्रकार यथार्थ से परे है.
जो संयोग तुझे प्रतिकूल भासित होते हें, वही किसी अन्य को अत्यंत अनुकूल लगते हें. और तो और तुझे स्वयं को जो आज को आज जो प्रतिकूल दिखाई देते हें वही कलतक अनुकूल दिखते थे और हो न हो कल फिर अनुकूल दिखाई देने लगें.
एक बात और!
तुझे जो संयोग आज प्रतिकूल दिखाई दे रहे हें उनमें से अधिकतम तो जड़ पदार्थ हें, चेतन तो बहुत कम हें. अब अगर वे जड़ पदार्थ और तद्जनित परिस्थितियाँ कल तक तुझे अनुकूल दिखाई देते थे और आज प्रतिकूल दिखाई देते हें तो उनमें तो राग-द्वेष है नहीं, वे तो राग-द्वेष से प्रेरित होकर परिणमन करते नहीं हें; उनके बारे में तो यह निश्चित ही है कि उनके बारे में अनुकूलता या प्रतिकूलता की धारणा तो तेरी अपनी ही है.
यह सुनिश्चित होजाने के बाद तू यह विचार क्यों नहीं करता है कि जो बात जड़ संयोगों के बारे में सही है वही बात चेतन संयोगों के बारे में क्यों सत्य नहीं होगी? यानिकि उनके बारे में इष्ट-अनिष्ट की परिकल्पना तेरी अपनी है, इसमें उनका कोई योगदान नहीं है.
तब व्यर्थ ही उनसे राग-द्वेष करने का क्या प्रयोजन?
प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है, चाहे वह चेतन हो या जड़ और वे अपने स्वभाव के अनुसार परिणमन करते हें. उनका कोई भी परिणमन तेरे लक्ष्य से नहीं होता है. यदि तुझे उनका कोई परिणमन इष्ट या अनिष्ट प्रतीत होता है तो यह तेरी अपनी मिथ्या कल्पना है, इसकी बजह से वे तो अपना स्वभाव छोड़ नहीं देंगे. छोड़ ही नहीं सकते हें.
एक बात और!
मानलीजिये कि कोई चेतनपदार्थ हमारे विरुद्ध परिणमन कर भी रहा है तो विचारणीय बात यह है कि क्या यह उसका इकतरफा परिणमन है? क्या इसमें हमारा अपना कोई योगदान नहीं है? 
संभव है कि हमें अपने व्यवहार और उसके विपरीत परिणमन के बीच तत्काल कोई सीधा सम्बन्ध दिखाई न भी दे पर क्या हमारे अशुभकर्म के उदय के बिना कोई भी पदार्थ हमारे विरूद्ध, हमारे प्रतिकूल परिणामित हो सकता है?
नहीं न?
तब यदि मुझे कुछभी करने की आवश्यकता प्रतीत भी होती है तो कार्यक्षेत्र कौनसा होना चाहिए?

परपदार्थ या मैं स्वयं?
परिवर्तन की आवश्यक्ता कहाँ है, स्वयं अपने में या परपदार्थों में?
परपदार्थ तो स्वतन्त्र हें, वे तेरे आधीन कहाँ हें कि तू उनमें परिवर्तन कर सके? तुझे ही अपनी मान्यता में परिवर्तन करना होगा. 
यहतो मात्र एक संयोग है (निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है) कि उनका अमुक प्रकार का परिणमन हुआ और तेरा शुभकर्मों का उदय हुआ तो वह तुझे अनुकूल लगने लगे या तेरे अशुभ कर्म का उदय हुआ और तुझे वे प्रतिकूल लगने लगे.
देखा तो यह भी जाता है कि उनका इसी प्रकार का परिणमन हमें कभी तो इष्ट-अनिष्ट प्रतीत होता है, कभी नहीं. यदि वे ही इष्ट या अनिष्ट होते तो सामान अवस्था में वे हमें सदा ही इष्ट या अनिष्ट क्यों नहीं दिखाई देते हें?




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