Friday, September 2, 2011

संसार का बढ़ना अरे , मुझको नहीं स्वीकार है

संसार का बढ़ना अरे , मुझको नहीं स्वीकार है (1 to 84)

by Parmatm Prakash Bharill on Tuesday, July 5, 2011 at 7:41am

इस जीव की अवस्था पर मैंने सेकड़ों पद लिखे हें जिनमें संसारी जीव की विभिन्न अवस्थाओं की उनकी मान्यताओं की चर्चा करते हुए मुक्ति के मार्ग पर प्रकाश डाला है , प्रथम बार ही क्रमश: फेसबुक पर प्रकाशित कर रहा हूँ ,रोज अवलोकन करें .

-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

(१)

सादि-अनादि निगोद से,कुछ काल को निकले अरे

लौट जाता फिर वहीं , जो शिव रमा को ना वरे

गति चार में आवागमन , भगवान तेरी हार है

संसार का बढ़ना अरे , मुझको नहीं स्वीकार है

(२)

सुर, नर्क, पशु,नर देह में , रूप क्या-क्या ना धरे

पर द्रव्य में नित रत रहा,जाना नहीं निज को अरे

ना जान निज,पर में रमण, भगवान तेरी हार है

संसार का बढ़ना अरे , मुझको नहीं स्वीकार है

(3)

गति चार में नर देह पाना,दुर्लभ अरे यह योग है

नर देह में जिन वचन का , सबको कहां संयोग है

सुनने अहो सद्भाग्य से , जिनको मिलें जिनवर वचन

टिकते नहीं संसार में वे,मिट जाये उनका भव भ्रमण

4)

जन्म को सौभाग्य या , दुर्भाग्य म्रत्यु को मानना

यह भूल है क़ि म्रत्यु बिन की,जन्म की तू कल्पना

है दोष जो म्रत्यु अरे तो , जन्म भी तो विकार है

ध्रुवधाम के आराधकों को,कुछ भी नहीं स्वीकार है

(5)

मर-मरके हम जीते अरे , जीना मरण समान है

म्रत्यु नहीं है अंत मेरा , ये व्यर्थ ही बदनाम है

जीवन हूँ मैं,मैं जीव हूँ,अविरल ये जीवन धार है

फिर क्यों डरे तू मौत से,अरु जन्म से क्यों प्यार है

(6)

नहीं चाहता मरना यदि तू,शिव रमा का वरण कर

मोक्ष अंतिम लक्ष्य है , यह पूर्णता सब दोष हर

आवागमन के अंत में ही , जीव का उद्धार है

पर न जाने क्यों तुझे , परिभ्रमण से ही प्यार है

(7)

मैं मौत से डरता रहा , चलता रहा जीवन मरण

निज आत्मा बिन कौन है,इस लोक मैं मेरा शरण

मैं स्वयं से रहता विमुख, बढ़ता रहे संसार है

संसार का बढ़ना अरे , मुझको नहीं स्वीकार है

(8)

प्रतिपल हमारे यत्न सब , दुःख मैटकर सुख खोज के

सुख मानके कुछ दुखों को,सुख नामसे दुःख भोगते

सच्चे सुखों का ज्ञान ही , सबसे प्रथम उपचार है

अब संसार के दुःख भोगना, मुझको नहीं स्वीकार है

(9)

संसार के इन सब दुखों में,सुखों की की कल्पना

क्या मात्र तेरी चाह से, बिष कुम्भ अमृतमय बना

सुख तू दुखों में खोजता,इस बुद्धि को धिक्कार है

सुख मानता तू कुछ दुखों को,दुःख से कहाँ इंकार है

(10)

दुखी करते कुछ पलों में ,सुख मानकर जो भोगता

फिर भी अरे , फिर से अरे, उनमें मरा मन डोलता

ओ मूर्ख कुछ तू विचार कर, इक बार सो सौ बार है

इक बार जो दुःखदाई है , सुख मानना निस्सार है

(11)

नित भोग में रमता रहा ,भ्रमता रहा संसार में

लेकिन नहीं ये सुखी करते , प्रकट है व्यवहार में

फिरभी उन्हीं से आस करना , मूढ़ता व्यवहार है

चिरकाल की यह मूढ़ता क्या,अबभी तुझे स्वीकार है

(12)

पकवान यदि आनंद देते , क्यों न निशदिन तू भखे

सुखमय है निद्रा ,जागरण तो,क्यों न उनमें रत रहे

पर ऊब कर कुछ ही पलों में ,तू विरत होना चाहता

थक हार कर फिर तू उन्हें , हर बार पाना चाहता

(13)

पल में सुखी , पल में दुखी , करते तुझे संयोग जो

पहिचान तो तू रूप उनका,सुख रूप हें या दुःख कहो

दुःख में सुखों की कल्पना , तेरा ही द्रष्टि विकार है

द्रष्टि परिवर्तन ही अरे , इस भ्रम रोग का उपचार है

(14)

सुख तो सदा सुख ही रहेगा , दुःख रूप हो सकता नहीं

दुःख भी सदा दुःख ही रहेगा , सुख रूप हो सकता कहीं

तू खोज सकता सुखों को , यह तर्क यदि स्वीकार है

दुःख भोगना ही नियति तेरी , यदि इस सत्य से इंकार है

(15)

यूं दुखी होना सुखी होना , सब कुछ तुम्हारे हाथ में

यदि तू दुखी ही बना रहता, कुछ कमी है पुरुषार्थ में

सत्य को सच मानना , इक मात्र यह पुरुषार्थ है

करना- कराना मिथ्यात् है , दर्शन -ज्ञान ही परमार्थ है

(16)

संसार में दौड़ा किया मैं , शांति - सुख की खोज में

करता रहा विस्तार भव का , हर घड़ी हर रोज में

क्यों नहीं माने दौड़ यह , सुख शांति के विपरीत है

भगदड़ तुम्हारी हार है वा , विश्राम में ही जीत है

(17)

सुखमयी यह निज आत्मा , सुखदाई , यह ही शरण है

तल्लीनता जीवन अरे , इससे विमुखता मरण है

तल्लीनता ही मुक्ति है , विस्मरण ही संसार है

बन जाये तू मुक्ती पथिक , यह तथ्य यदि स्वीकार है

(18)

धन कमाने भोगने के , उपक्रमों में लीन तू

निन्यानवे के फेर में ,भिक्षुक बना है दीन तू

विस्तार वैभव का नहीं,संसार का विस्तार है

संसार का बढ़ना अरे,मुझको नहीं स्वीकार है

(19)

संसार में डरता अरे , अन्याय से अतिचार से

नित रत रहे संघर्ष में , अन्याय के प्रतिकार में

स्वीकारता क्यों अब नहीं , अन्याय ही संसार है

अन्यायमय संसार यह,अब ना मुझे स्वीकार है

(20)

पुरुषार्थ मैंने जो किये , भव - भ्रमण के पुरुषार्थ थे

संसार के पुरुषार्थ सारे , परमाद हें परमार्थ से

निज भाव में तल्लीनता , परमाद का परिहार है

ये पुरुषार्थ का लक्षण अरे, जिन धर्म का आधार है

(21)

दिनरात के इन उपक्रमों से ,संसार ही बढ़ता रहा

पड़ता रहा भव कूप में, भव ताप ज्वर चडता रहा

इस ताप का उपचार तो,बस एक आत्म विचार है

निज आत्मा को भूलना , संसार का विस्तार है

(22)

कन्या यदि जो षोडसी हो तो,अधीर हो वर खोजता

मुक्ती रमा के वरण हेतू,क्या कभी आतम में झुका

तू ही बता संसार से या , निज आत्मा से प्यार है

संसार की सब कामना का, फल तो सदा संसार है

(23)

संसार की उपलब्धियों को, मैं तरक्की मानता

यह संसार का विस्तार है,यह मूढ़ता है मान्यता

घटना अरे संसार का , यह लाभ का व्यापार है

संसार का बढ़ना कहो , किसको कहाँ स्वीकार है

(24)

यह जग पतन का धाम है,उत्थान है निज आत्म में

आधे -अधूरे जगत जन हें , है पूर्णता परमात्म में

जग की विभूति त्यागकर , इक आत्मा स्वीकार है

वह आत्मा संसार की , हर प्रक्रिया से पार है

(25)

हर कोई चाहे जगत सब , अनुकूल मेरे परिणमे

पर एक के अनुकूल वर्तन,प्रतिकूल अन्यों के बने

संसार में अनुकूलता की , कल्पना बेकार है

संतुष्टि इस संसार में , भगवान तेरी हार है

(26 )

प्रतिकूल जिस परद्रव्य को , है तू विपत्ती मानता

वह द्रव्य उसमें लीन है , तेरी निधी तुझको पता

प्रतिकूलता - अनुकूलता , यह राग का व्यापार है

किस द्रव्य को तेरा दखल,परिणमन में स्वीकार है

(27)

मैं भला करता ,बुरा करता , कोई बनाता है मुझे

कर्तापना यह जगत का , जग में भ्रमाता है मुझे

रे छोड़ दे कर्तापना तू ,यह सत्य का स्वीकार है

सच्चाई से मुख मोड़ना , संसार का विस्तार है

(28)

जग परिनमाता है मुझे, जग का करूं मैं परिणमन

मिथ्यात्व है यह मान्यता,इससे बढे जग में भ्रमण

बनकर अकर्ता मात्र ज्ञाता , रहना यह़ी उपचार है

वह जीव जग में ना रहे , ज्ञायक जिसे स्वीकार है

(29)

कर्तापना तू चाहता , करने नियंत्रण जगत पर

पर चैन से ना सो सके , जग का नियंता कोई नर

इतना विरोधाभास जगमें,क्या ईश को स्वीकार है

विसंगति यह जगत की , किसकी कहो यह हार है

(30)

यदि कोई शक्तिमान नर , सचमुच है कर्ता जगत का

क्यों ईश निंदक जगत में, क्या है नहीं उसको पता

सन्मार्ग उनको ना मिला, किसका कहो अपराध यह

अपराध बिन जो दंड दे , अधिकार किसके पास यह

(31)

करतार बन , बन जायेगे , सबसे दुखी व्यवहार में

भगवन क्या चाहें दुखी हो , कोई मनुज संसार में

भगवान के हर भक्त की , अन्य से तकरार है

जग के नियंता ईश को , यह द्वेष क्यों स्वीकार है

(32)

दुःख अनेकों भोगते , क्यों झेलते धिक्कार हें

भगवन के वन्दे जगत में , क्यों नहीं हर द्वार हें

हें भक्त कम उनसे अधिक , भगवान के अवतार हें

यह अराजकता जगत में , क्यों ईश को स्वीकार है

(33)

स्वाधीनता का हनन है , कर्तापना पर द्रव्य का

क्या अन्य भी तेरा करे , स्वीकार है तुझको बता

तू ही बता क्या बन्धनों से , तुझको धरा पर प्यार है

फिर अन्य पर कुछ लादने का,तुझे कहाँ अधिकार है

(34)

सब चाहते अपने लिए , अनुकूलता भगवान से

परस्पर विरोधी चाहतें हें , हर भक्त की भगवान के

दोनों ही भगवन के उपासक,किसको करे इनकार वह

पूर्ण सबकी कामना हो , यह कल्पना बेकार है

(35)

चाहिए कुछ कुछ सभी से , ऐसी है तुझमें क्या कमी

क्या कोई वस्तु जगत में , आधी अधूरी है बनी

परिपूर्ण हें वे सब स्वयं में , छः द्रव्य मिल संसार हें

पर भिन्न सबसे स्वरूप स्थित , आत्मा अविकार है

(36)

अन्य से कुछ मांगना , स्वीकार है निज ह्वास का

रे मांगना जग में किसी से , काम है परिहास का

कुछ मांगना भगवान से , अविवेक है अविचार है

भगवान का भगवान से , ऐसा कहाँ व्यवहार है

(37)

परिपूर्ण हूँ मैं तो स्वयं में,क्यों रिक्तता से डर गया

पूर्णता की चाह में मैं , आधा अधूरा रह गया

खुद को अधूरा मानना , प्रभु आपकी यह हार है

पूर्णता की स्वीकृति वस , पूर्णता का द्वार है

(38)

प्रत्येक पल में यत्न से , पर द्रव्य का संचय करूं

रक्षित स्वयं अस्तित्व से,उसमें कहो मैं क्या करूं

मैं राग अपना जोड़ता , बढ़ता रहे संसार है

तू द्रष्टि उसपर से हटा . तो मोक्ष तेरे द्वार है

(39)

प्रत्येक कण संसार का , सम्पति है उस स्वयम की

सम्पती माने विपति माने , यह मान्यता है भ्रम भरी

प्रत्येक कण निज में ही सीमित,न अन्य तक विस्तार है

निज सीम में हर द्रव्य का , सम्पूर्णत: अधिकार है

(40)

जब मानता कुछ खो गया,तुम कहो उसका क्या हुआ

निज में ही तब थ , अब रहा , जड़ से नहीं चेतन हुआ

न छला उसने भूल का , तू स्वयं जिम्मेबार है

ये तो बता परद्रव्य से , क्यों तुझे इतना प्यार है

(41)

बन दान दाता , तू लुटाता , उपयोग को संसार में

लेन देन तो कुछ और है ना, तेरे यहाँ अधिकार में

स्थाप ले उपयोग को तू,अब एक आत्म विचार में

सीमित रहे जो आत्मा में , तो आत्मा अविकार है

(42)

संयोग का न वियोग होता , वियोग का संयोग ना

हें सब स्वयं से स्वयं में , कोई किसी का कब बना

संयोग और वियोग तो बस , कल्पना कुविचार हें

स्वकाल में , स्वक्षेत्र में , हर द्रव्य का विस्तार है

(43)

जो है अवस्तु, वस्तु ना,उस संयोग और वियोग से

आहत है कितना दीन तू , मात्र अपने रोग से

ये मिथ्यात्व नामा रोग भी ,वस्तु नहीं ये विचार है

द्रष्टि बदलना मात्र ही . मिथ्यात्व का संहार है

(44)

दर्शन करे जिनदेव का , श्रंगार कर तू बहु विधी

उनका तो वैभव गुण अनंते,क्या काम की जग की निधी

श्रंगार का गुणगान क्या , जिनदेव का सत्कार है

श्रंगार उसको चाहिए जिसे , निज रूप ना स्वीकार है

(45)

पूजा नहीं उपसर्ग है , जिनदेव को श्रंगारना

घात है नि:रागता का , है राग की स्थापना

जिस राग से श्रंगार हो ,वह राग ही जब ध्वस्त है

अब तो अरे परमात्मा , स्वरूप में ही व्यस्त हें

(46)

कर्तापना हर्तापना , अरु राग औ श्रंगार जो

विकृति ये सब हमारी , साक्षात् है संसार जो

उस रूप की भगवान में , स्थापना अविचार है

धारण करे तू रूप उनका,यह दरश का उपहार है

(47)

श्रंगार कर भगवान का , किस रूप का दर्शन करे

श्रंगार यदि आदर्श है तो फिर संयमी क्यों ना करें

श्रृंगार खुद का त्यागता तब,क्यों देव का श्रंगार है

जो त्यागकर वे जिन हुए,उनपर थोपना बेकार है

(48)

खुद का करे श्रृंगार या , श्रंगार की हो भावना

यह देह की आशक्ति है ,पर देह कब अपना बना

क्या देह का श्रंगार ही , भगवान का सत्कार है

तो जाने नहीं भगवान को, बस देह से ही प्यार है

(49)

दरश का उद्देश्य निज में , जिन रूप की स्थापना

स्थापता मैं मलिन उनमें , अपने ह्रदय की कल्पना

संगती का जग जनों की , जिनदेव को उपहार यह

बस इसलिए ही छोड़ जाते,आत्मर्थिजन घरबार यह

(50)

आरोपता निज व्रत्ति को ,निज ज्ञान में भगवान पर

भगवान को ना जानकर , उनका नहीं श्रद्धान कर

यह ना देव दर्शन की विधी , इसमें नहीं उद्धार है

लोक में या धरम में , तुम्हें बस राग से ही प्यार है

(51)

तू चीखता, तू पुकारता , पुचकारता , धिक्कारता

भगवान को तू अरे पामर ,किस द्रष्टि से है निहारता

भगवान है क्या कोई नेता , या जग का थानेदार है

रे धर्म का संसार से , विपरीत सब व्यवहार है

(52)

तू क्या क्या सुनाता देव को , नाचकर अरु गा बजा

संसार के ओ अघ मनुज , ऐसा है तेरे पास क्या

उच्छिष्ट सम है भेट तेरी , हें तीर सम उदगार सब

ना काम के हें मुक्तिपथ में , व्यर्थ हें बेकार सब

(53)

क्या कहे उनसे निज व्यथा,सबकी है जग में ये कथा

बस इस लिए जग त्यागकर , वे बने विरागी सर्वथा

तू भी यदि सुख चाहता , तो बस इक यह़ी उपचार है

कुबुद्धि का परित्याग कर,यदि सन्मार्ग ही स्वीकार है

(54)

अरे जिनालय में अवस्थित , जिनदेव का प्रतिबिम्ब जो

है हमारा , आपका भी , स्वभाव का प्रतिबिम्ब वो

उस रूप निज को मानना , आराधना का सार है

उस ही में फिर लीन होना , यह़ी सद व्यवहार है

(55)

दौड़ता तू गिरि शिखर , किसका करे दर्शन अरे

देख ले तू रूप अपना , तो शिव रमा तुझको वरे

निज में सिमटना मोक्ष वा ,यूं भटकना संसार है

कौन जाने क्यों तुझे , यूं भटकने से प्यार है

(56)

अन्य की जयकार तुझको, क्या मुक्तिपुर ले जायेगी

तुम्ही कहो क्या दास वृत्ति ये , नाथ पद दिलबायेगी

दासता की दीनता ये , मुझको नहीं स्वीकार है

प्रभुता मुझे बस चाहिए , लघुता से मुझे इनकार है

(57)

उत्कर्ष हेतु आत्मा के , आत्मा में लीन हो

लक्ष्य पर से फेरकर , निज में रहे तल्लीन जो

उन साधकों को आपकी क्या , आराधना स्वीकार है

आदर्श मेरे संत वे ,निर्वसन, निर्लिप्त वा अविकार हें

(58)

पामर बना भटका किया , भूला हुआ भगवान मैं

मानूं स्वयं को हीन क्यों ,यद्यपि गुणों की खान मैं

यह हीनता की भावना ही , संसार का जड़ मूल है

कम-अधिक खुद को मानना,भगवान तेरी भूल है

(59)

त्रिकाल है अस्तित्व तेरा , अनन्त गुणों की खान तू

ना तू पुजारी और पामर , तू तू स्वयं भगवान तू

भगवान तू भगवान को क्यों,इस तरह अपमानित करे

है तू स्वयं आनंद घन , यह भान सब पीड़ा हरे

(60)

यदि मुग्ध है तू रूप पर , अरिहंत के भगवान के

वह रूप तो है देह का , वे अन्य हें इससे अरे

आराधना उस रूप की , यह काय का व्यापार है

भगवान तो अस्पर्श हें , ना रूप ना आकार है

(61)

हास्य मुद्रा , रौद्र मुद्रा ,किस तरह जग से भिन्न है

वैराग्य छवि भी देव की , देह से ना अन्य है

हो रागी अथबा वैरागी , छवि देह का श्रृंगार है

छवि से परे यह आत्मा , छवि में खोजना बेकार है

(62)

तू लक्ष्य को छवि से हटा , आत्मा पर ध्यान दे

वो एक शुद्ध अखंड निर्मल , है गुणों की खान रे

जो चाहिए,सब कुछ तुझी में,ना अन्य की दरकार है

पर से न कुछ तू पायेगा , पर की आस ही संसार है

(63)

वह आत्मा भगवान का , तेरा नहीं है वो ध्येय है

तू ध्येय तेरा , ज्ञेय तेरा , तू तू स्वयं श्रद्धेय है

तू आत्मा परमात्मा , अविनाश है अविकार है

है शुद्धता निज लीनता , विस्मरण ही तो विकार है

(64)

इस तरह छवि भगवान की या, आत्मा भगवान का

पर द्रव्य हें दोनों अरे , तेरे लिए किस काम का

परिपूर्णता की प्राप्ति में , निज आत्मा ही ध्येय है

हें ज्ञेय तो वे अन्य सब , निज आत्मा श्रद्धेय है

(६५)

इस तरह से परमात्मा,साधन न तेरे साध्य में

जब मैं स्वयं आराधना हूँ , हूँ स्वयं आराध्य मैं

आराधना निज आत्मा की , आराधना का सार है

ताकना पर की तरफ , मुक्ती पंथ में निस्सार है

(66)

अरिहंत इक पर्याय है , अरु शिद्ध भी पर्याय है

आराधना पर्याय की ना , मोक्ष का ये उपाय है

भेद बिन,गुण-पर्याय सह,अखंड आतम ध्येय है

हें गुण अनंते आत्मा में,गुणभेद पर बस ज्ञेय है

(67)

द्रष्टि जगत से फेरकर ,अरिहंत पर स्थाप कर

स्वरुप अपना स्वयं का,जिनबिम्ब में तु निहार कर

होकर बिमुख तब बिम्ब से, आत्म रूप निहारकर

हें एकसे द्रव द्रष्टि से , इस सत्य को स्वीकार कर

(68 )

जिनबिम्ब का संज्ञान ले , आत्मा का ध्यान धर

इस तरह छवि को छोड़कर,छविमान की पहिचान कर

हो जाये स्थित लीन निजमें, बन जायेंगे भगवान बो

इक ब़ार बस भ्रम तोड़कर , तु आप को पहिचान तो

(69)

इस तरह अपने आप का . स्वरुप का तू विचार कर

पर द्रव्य से पर्याय से , वो अन्य है स्वीकार कर

गुण और पर्ययबान को , यह भेद ना स्वीकार है

इसका जानना तो ज्ञान है , पर देखना व्यवहार है

(70)

द्रव्य ,गुण ,पर्याय से ही ,जानना भगवान को

ज्ञान है वह आत्मा का, है आत्म का श्रद्धान बो

क्षीण होवे मोह तब,यह सम्यक्त्व है,यह सार है

सम्यक्त्व बिन इस लोक में, और सब निस्सार है

(71)

थक हार कर स्वीकारता , है देह जाने के लिए

मन्नतें तब माँगता ,फिर नर देह पाने के लिए

ना भूल सुर,पशु,नरक सम,नर देह भी संसार है

यदि शिव रमा को ना वरा,हर देह ही इकसार है

(72)

इस देह के सम्बन्धियों में,अपनत्व की की कल्पना

क्या कोई भी नर आज तक ,तेरा बना ,अपना बना

हर दिवस तू हर कदम पर,इस तथ्य का अनुभव करे

क्यों नहीं पर से विमुख हो तब , आत्म के दर्शन करे

(73 )

क्या नहीं तूने अघ किये , इस देह पोषण के लिए

है देह तो मैं ही रहूगा , मेरा नाश हो इसके मरे

रे जड़ बने तू जड़ बने , जड़ता से करे जो प्यार है

पहिचान ले तू रूप अपना , तू आत्मा अविकार है

(74)

रे देह की संतती को तू , कहे तेरी परमपरा

और उनके राग वश,दिन रात अघ कर कर मरा

विस्तार संतति का अरे , संसार का विस्तार है

भगवान तुझको क्यों अरे!यह मूढ़ता स्वीकार है

(75)

तू मानता परिजन ये तेरे , तेरे रहें आधार से

पलता रहे अहसास ये , जब तक पुकारें प्यार से

भ्रम टूट जाता एक दिन,यह व्यथा हर घर द्वार है

भ्रममयी ये जीवन अरे क्या,सचमुच तुझे स्वीकार है

(76)

मैं मनुज , राजा , नर , अमर , व्रद्ध बालक मैं अरे

यह मानकर चैतन्य राजा , स्वयं जड़ता को वरे

चैतन्य को जड़ में मिलाना , जड़ता भरा व्यबहार है

इस मान्यता का फल अरे , यह दुःख मयी संसार है

(77)

आतम स्वयं परमात्मा है,पर द्रव्य सब पर आत्मा

हैं स्वयं के परमात्मा बे , पर द्रव्य को पर आत्मा

प्रयोजनभूत है ये जानना,जीवजीव तत्व विचार ये

सभी ज्ञानी एक मत से , इस सत्य को स्वीकारते

(78)

मैं पाप से डरता रहा अरु, पुन्य पर मरता रहा

अश्रवों के खेल में मैं , कर्म घट भरता रहा

शुभ अशुभ विरहित शुद्धता ही,मुक्ति का इक द्वार है

शुभ अशुभ दोनों कर्म हें ,वा कर्म सब संसार हें

(79)

पुन्य हो या पाप हो , भव में भ्रमाते जीव को

हित अहित के अभिप्राय से ,वे एक हें दोनों अहो

अशुभ शुभ में भेद करना,संसार का अधिकार है

मोक्ष से ना , उस जीव को ,संसार से ही प्यार है

(80)

रचता रहे यह जीव नित , द्वेष मय परिणाम में

पर मानते सुख शांति ये सब,रागमय परिणाम में

हें पाप मय , संसार मय ,दोनों ही बंध विचार हें

मुक्ती पथिक को एक से ही , द्वी भाव अस्वीकार हें

(81)

मान हित कारक किये , अनुबंध मैंने नित यहाँ

अनुबंध तो बस बंध हें , निर्बंध का यह पथ कहाँ

निर्बन्धता है हित हमारा,बंधन सदा दुःखकार है

यह जानकर भी क्यों तुम्हें , बन्धनों से प्यार है

(82)

पर द्रव्य से सम्बन्ध यह तो , बंध है बस बंध है

सम्बन्ध विरहित जीव तो,तिरकाल ही निर्बंध है

बंधता नहीं यह आत्मा,बंधन है मिथ्या मान्यता

बंधन में निज को मानने से,यह जीव बंधन में बंधा

(83)

जग में भ्रमाते कर्म मुझको,यह रही मेरी मान्यता

जो आज तक भगवन बने,कैसे गये वे शिव बता

कर्म क्या बांधें तुझे , अस्पर्श तूनिर्बंध है

निज में ही स्थित,लीन निज में,परसे नहीं सम्बन्ध है

(84)

स्वाधीन हो उन्मूल दे , मिथ्यात्व को तू मूल से

कोई न बांधे स्वयं बंधता, तू मात्र अपने भूल से

बंधन नहीं है और कुछ बस, बंध का स्वीकार है

बंध से इनकार करदे , तू आत्मा अविकार है

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