कैसी गजब की बात है !
तुझे दुनिया का सबसे बड़ा पापी , सबसे बड़ा पुण्यात्मा या सबसे बड़ा धर्मात्मा बनने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है .
न तो कहीं जाना है , न कुछ ही करना है .
तू किसी भी पर पदार्थ का स्पर्श किये बिना यह काम कर सकता है .
अरे ! कर क्या सकता है , दिन रात करता ही है .
पर पदार्थ का स्पर्श तो तू कर ही कहाँ सकता है ?
पर हाँ ! अभिप्राय में पडी कर्ता बुद्धी तुझे निरंतर पाप-पुन्य का बंध करबाती रहती है .
पर तुझे तो भाग दौड़ की आदत पडी है न .
भाग दौड़ किये बिना तुझे ऐसा लगता ही नहीं है क़ि कुछ किया है इसलिए इसे पुन्य करने के लिए भी भाग दौड़ चाहिए और धर्म करने के लिए भी भाग दौड़ ही चाहिये .
दरअसल तूने धर्म का स्वरूप समझा ही कहाँ है ?
हे आत्मन ! तेरा सारा संसार तुझमें ही है और तेरा मोक्ष भी तुझमें ही है .
जब तू अपने उपयोग को बाहर भ्रमाता है तो तो पर के निमित्त से राग द्वेष होते हें और संसार बढ़ता है .
यदि तू अपने उपयोग को अपने आप में समेट ले तो आत्म स्वभाव के लक्ष्य से स्वभाव भाव प्रकट होगा , धर्म प्रकट होगा .
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