इसी कहानी में से -
- "आप गलत हो भी कैसे सकते हें, आपतो राजा हें, आपतो जो फरमाएंगे वही क़ानून बन जाएगा, फिर अपराधी तो बो कहलायेंगे जो आपके बनाए क़ानून का उलंघन करेंगे."
- "शत्रु भी इससे भिन्न और क्या जुल्म कर सकते हें? तब फिर संरक्षक और शत्रु में फर्क ही क्या रहा?"
- "शत्रु भी इससे भिन्न और क्या जुल्म कर सकते हें? तब फिर संरक्षक और शत्रु में फर्क ही क्या रहा?"
- “माता मारे आपनी, बाप बेचके खाये
राजा मारे देशका,कहन कौनसौं जाये”
“क्या
अपने ऐसे ही होते हें?“ - (एक लघु कथा)
सत्य
ही तो फरमाया आपने, भला आप गलत होते ही कब हें?
आप
गलत हो भी कैसे सकते हें, आपतो राजा हें, आपतो जो फरमाएंगे वही क़ानून बन जाएगा,
फिर अपराधी तो बो कहलायेंगे जो आपके बनाए क़ानून
का उलंघन करेंगे.
हाँ!
सच कहा आपने!
मैंने
अपनी सफाई क्यों पेश नहीं की?
हुजूर
को शायद अहसास ही नहीं है कि हुजूर ने सफाई माँगी ही कब?
सफाई
पेश करने का मौक़ा ही कब दिया?
मुझे
आरोपपत्र सुनाया ही कब गया हुजूर!
आपको
आरोपपत्र सुनाने और सफाई मांगने की आवश्यक्ता भी तो नहीं पडी न!
शायद
आप यही मान बैठे कि – “वो जो आकर कान में कह जाते हें, वे कोई झूंठ थोडे ही
बोलते होंगे, वे भी तो भले आदमी लगते हें, भोले भी दिखते हें.”
मुझे
मालूम है कि आपको सोचने-समझने में समय बर्बाद करना विल्कुल पसंद नहीं है.
और
यह गवाही-सफाई, ये तो आपको राजनीति सी लगती है, जो आपको विल्कुल पसंद नहीं, घ्रणा
करते हें आप राजनीति से तो.
हाँ!
वे पडौस वाले छब्बेजी जो कान में कानाफूसी कर जाते हें, वे कोई राजनीति थोड़े ही
करते हें, वे तो जनेऊधारी धर्मात्मा हें भाई!
अपने
बचपन की वे घटनाएं मैं अभी भूला नहीं हूँ कि किस तरह आप घर में प्रवेश करते ही
मेरे ऊपर तडातड़ लात-घूसों की बरसात कर देते थे, क्योंकि घर के दरबाजे पर ही वो
पडौस वाले “सत्यवादी हरिश्चन्द्र के अवतार” छब्बेजी आपके समक्ष मेरा दिनभर का
आरोपपत्र पेश कर चुके होते थे; और तब भी मेरी सफाई पूंछने की कोई आवश्यक्ता ही
नहीं समझी जाती थी.
समझी
भी क्यों जाती?
आखिर मैं आपका ही तो बेटा हूँ, और आप क्या मुझे जानते नहीं कि "यदि कोई कह रहा है कि मैंने अपराध किया है तो अवश्य ही मैंने ऐसा किया ही होगा. गवाही–सफाई की जरूरत तो उसे पड़े जो जानता-पहिचानता न हो."
ऐसा भी नहीं है कि छब्बेजी की कोई बात आजतक गलत साबित ही न हुई हो, पर इससे क्या? कभी-कभी तो गल्ती सभीसे हो जाती है. वे भी तो आखिर इंसान ही तो हें, कोई भगवान् के अवतार तो हें नहीं, पर भला वो झूंठ क्यों बोलेंगे?
आखिर मैं आपका ही तो बेटा हूँ, और आप क्या मुझे जानते नहीं कि "यदि कोई कह रहा है कि मैंने अपराध किया है तो अवश्य ही मैंने ऐसा किया ही होगा. गवाही–सफाई की जरूरत तो उसे पड़े जो जानता-पहिचानता न हो."
ऐसा भी नहीं है कि छब्बेजी की कोई बात आजतक गलत साबित ही न हुई हो, पर इससे क्या? कभी-कभी तो गल्ती सभीसे हो जाती है. वे भी तो आखिर इंसान ही तो हें, कोई भगवान् के अवतार तो हें नहीं, पर भला वो झूंठ क्यों बोलेंगे?
आपने इस तथ्य की ओर तो कभी गौर ही नहीं किया कि छ्ब्बेकी का व्यक्तित्व कैसा है, मुहल्ले में उनकी छवि कैसी है, और वे जहां भी जाते हें वहां मात्र तोड़फोड़ और उपद्रव ही करके लौटते हें.
मैंने जब भी मुंह खोलने की कोशिश की, मेरी हर बात में आपको राजनीति की ही गंध आती रही, मेरी बात सुनने का धैर्य तो आपमें कभी था ही नहीं.
मैंने जब भी मुंह खोलने की कोशिश की, मेरी हर बात में आपको राजनीति की ही गंध आती रही, मेरी बात सुनने का धैर्य तो आपमें कभी था ही नहीं.
पर इसमें आपका क्या
दोष? यहतो आपके रघुकुल की रीत है, किसीने भी, किसीकी भी, कोईभी बात सुनी ही कब?
मैं
अपनी सफाई पेश करके पाता भी क्या, आपतो मुझे पहिले ही अपराधी मान ही चुके होते थे.
अब तो मैं जितना ही बोलने की कोशिश करता, उतनी ही अधिक मार खाता.
अब तो मैं जितना ही बोलने की कोशिश करता, उतनी ही अधिक मार खाता.
उस
पर तुर्रा यह कि –
“मैं
कोई पराया थोड़े ही हूँ, तुम्हारा अपना हूँ, शुभचिंतक हूँ, कोई दुश्मन नहीं. मैं जो
भी करता हूँ वह तेरी भलाई के लिए ही तो करता हूँ, वरना किसे अपने ही बच्चों की
पिटाई करने में मजा आता है.
वो पडौसवाले छब्बेजी कोई मेरे सगे नहीं हें कि मैं उनका पक्षलूं.”
न सही, आपमें इतना धैर्य नहीं था कि मुझसे कैफियत-तलब करते पर आप मेरे व्यक्तित्व और वृत्तिओं से तो परिचित थे ही न, आप इतना तो जानते ही थे न कि मैं आपकी ही तरह आपका ही वह बेटा हूँ जिसे अन्याय-अनीति वर्दाश्त ही नहीं, तब आप यह कल्पना ही कैसे कर पाए कि मैं ऐसा कुछ करभी सकता हूँ ?
न सिर्फ मेरी जबान ही पर मेरा व्यक्तित्व, मेरा आपसे रिश्ता और आपका मेरे प्रति वात्सल्य भी मेरे पक्ष में गबाही न दे सका, मुझे संरक्षण नहीं दे सका, मुझे immunity प्रदान नहीं कर सका.
वो पडौसवाले छब्बेजी कोई मेरे सगे नहीं हें कि मैं उनका पक्षलूं.”
न सही, आपमें इतना धैर्य नहीं था कि मुझसे कैफियत-तलब करते पर आप मेरे व्यक्तित्व और वृत्तिओं से तो परिचित थे ही न, आप इतना तो जानते ही थे न कि मैं आपकी ही तरह आपका ही वह बेटा हूँ जिसे अन्याय-अनीति वर्दाश्त ही नहीं, तब आप यह कल्पना ही कैसे कर पाए कि मैं ऐसा कुछ करभी सकता हूँ ?
न सिर्फ मेरी जबान ही पर मेरा व्यक्तित्व, मेरा आपसे रिश्ता और आपका मेरे प्रति वात्सल्य भी मेरे पक्ष में गबाही न दे सका, मुझे संरक्षण नहीं दे सका, मुझे immunity प्रदान नहीं कर सका.
जब सिर्फ आपही मेरे सबकुछ थे,
मुझे आपकी, आपके स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन की और आपके संरक्षण की सबसे अधिक आवश्यक्ता थी, तब मुझे आपसे यह मिला.
गल्तियाँ मुझसे भी हुई हें, सभी गल्तियाँ करके ही तो सीखते हें न, पर एक गल्ती के परिपेक्ष्य में मुझे सदा के लिए गलत ही मान लेना क्या आपकी महान गल्ती नहीं है? क्या कोई अपने ही बालकों की गल्तियों पर ऐसे ही व्यवहार करता है?
शत्रु भी इससे भिन्न और क्या जुल्म कर सकते हें?
तब फिर संरक्षक और शत्रु में फर्क ही क्या रहा?
गल्तियाँ मुझसे भी हुई हें, सभी गल्तियाँ करके ही तो सीखते हें न, पर एक गल्ती के परिपेक्ष्य में मुझे सदा के लिए गलत ही मान लेना क्या आपकी महान गल्ती नहीं है? क्या कोई अपने ही बालकों की गल्तियों पर ऐसे ही व्यवहार करता है?
शत्रु भी इससे भिन्न और क्या जुल्म कर सकते हें?
तब फिर संरक्षक और शत्रु में फर्क ही क्या रहा?
सारी दुनियाँ कहती रही कि-
“इतनी बड़ी दुनियाँ में सिर्फ आपही
मेरे अपने थे” मैं भी ऐसा ही मानता रहा और मेरी नजर में अपनों की कुछ ऐसी ही तस्वीर बन पडी है, मैं अबतक “अपनों” की यही
परिभाषा जान/समझ पाया हूँ जैसे आप हें.
अब आप ही एक बार बतलाओ न,
please-
“क्या अपने ऐसे ही होते हें ?“
आखिर
मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि –
“माता
मारे आपनी, बाप बेचके खाये
राजा मारे देशका,कहन कौनसौं जाये”
"आखिर तो भवितव्य ही वलवान है”
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