धर्म तो नितांत व्यक्तिगत निधि है न?--------तब उसकी मार्केटिंग क्यों?
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
जो वैभव सम्पन्न होते हें वे ठोस सोने की आभूषण पहिनकर आत्ममुग्ध होते हेंऔर मात्र झूठे वैभव प्रदर्शन की चाहत रखने वाले दरिद्री पीतल पर सोने का पानी चढ़ाकर अपने वैभवशाली होने के झूंठे प्रदर्शन का प्रयास (अपनी द्ररिद्रता का प्रदर्शन) करते हें
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
जो वैभव सम्पन्न होते हें वे ठोस सोने की आभूषण पहिनकर आत्ममुग्ध होते हेंऔर मात्र झूठे वैभव प्रदर्शन की चाहत रखने वाले दरिद्री पीतल पर सोने का पानी चढ़ाकर अपने वैभवशाली होने के झूंठे प्रदर्शन का प्रयास (अपनी द्ररिद्रता का प्रदर्शन) करते हें
हम यदि रत्नव्यवसायी हें तो क्या स्वयं के उपयोग/उपभोग के आभूषण भी बेच डालते हें? कोई अपने हाथकी रोटी (स्वयं का भोजन) तो नहीं बेचखाता है न?
तब धर्म में यह सब क्यों?
धर्म तो नितांत व्यक्तिगत निधि है न? उसमें तो परिजन भी भागीदार नहीं हें न? तब उसकी मार्केटिंग क्यों?
सल्लेखनाधारी के लिए तो प्रदर्शन और प्रचार के मायने ही क्या हें?
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