Thursday, February 23, 2023

ककडी की कीमत (कहानी)

jaipur, friday, 13 nov. 2015, 12.40 pm

ककडी की कीमत  (कहानी)

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

दीपावली के बाद भाईदूज का दिन था. सारा बाजार बंद था पर बेटे को अत्यावश्यक काम होने उसके साथ एकाध घंटे के लिए मुझे भी ऑफिस जाना पडा.
मैं जब भी बाजार से निकलता हूँ तो सड़क के किनारों पर सजे ताजा-ताजा फलों और सब्जियों से सजे ठेले ही मेरे लिए वे सुन्दरतम द्रश्य हुआ करते हें जिन्हें मैं निहारता रहता हूँ. फलों या फूलों से लदा यदि कोई वृक्ष दिखाई देजाए तबतो कहना ही क्या. 
पार्किंग में गाडी पार्क करने के बाद हमलोग ऑफिस की और चले जारहे कि मेरी नजर सड़क के किनारे ताजा तरकारियों की दुकान पसारे अकेली बैठी उस बूड़ी अम्मा पर पड़ी जो दीन दुनिया से बेखबर बस अपने में मगन थी. सामने दो-तीन टोकरों में अलग-अलग सब्जियां भरी थीं और सबसे आगे एक बारदाने पर बेतरतीब सा बिखरा खीरों का ढेर लगा था. स्पष्ट था कि उन्हें खेत से लाकर सीधा यही पटक दिया गया था, न तो उन्हें धोकर साफ़ ही किया गया था और न ही उनकी छंटाई की गई थी, इसीलिये उस ढेर में सभी तरह के खीरे विद्यमान थे. सीधे-सपाट से लेकर आड़े-भेड़े तक, एकदम कच्चे-कौले से लेकर पके हुए तक और नन्हे से लेकर भारी-भरकम तक.
मेरी नजरें उन कच्चे-कौले, सीधे, नन्हे खीरों पर अटक गई. मुझे साफ़ दिखाई देरहा था कि ऐसे खीरे बहुत ही कम थे. मुझे यह भी मालूम था कि आज पूरे बाजार में कहीं भी खीरे नहीं मिलेंगे और यूं भी आजकल खीरे का मौसम उतार पर है इसलिए कल भी वे कहीं मिलेंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता था.
मुझे खीरे बहुत पसंद हें पर दुर्भाग्य कि वे बर्ष में मात्र कुछ ही दिन उपलब्ध होते हें. सबकुछ मिलाकर निष्कर्ष यह है कि मेरा मन खीरों पर लुभा गया पर उन्हें लेकर ऑफिस जाना ठीक नहीं लग रहा था, समय भी कम था, जल्दी लौटना भी था, यही सोचकर मनमारकर मैं खीरे लिए बगैर ही आगे बढ़ गया. 
मैं मात्र खीरे ही नहीं अपना मन भी वहीं छोड़ आया था, मैं आफिस तो पहुँच गया पर मेरा मन उन कौले-कौले खीरों में ही अटका रहा, आफिस पहुंचकर बेटा तो अपने काम में लग गया पर मेरा मन काम में नहीं लगा और मैं बस इसी योजना में मगन रहा कि कब आफिस से निकलूं और इससे पहिले कि कोई और उन्हें छांटकर लेजाये, कैसे जाकर सबसे पहिले मैं उन कौले-कौले खीरों को छांटकर लेलूँ.
हलांकि इस बात की संभावना भी कम ही थी कि कोई और उन्हें ले जाएगा, क्योंकि मेरे जैसे सफ़ेद कालर वाले लोग तो उस जैसी दूकान की ओर ताकेंगे भी नहीं. उन्हें तो सजी-सजाई बड़ी सी दूकान पर तरतीब से सजे, एक जैसे छंटे-छंटाये, साफ़-सुथरे और महंगे भाव वाले फल व सब्जियां लेने की आदत होती है, और सामान्यजन खीरों के उतने पैसे देने को तैयार नहीं होता है जितने वह सब्जी बेचने वाली निष्ठुर माता मांगती है. 



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