jaipur, friday, 4th dec. 2015, 6.55 am
यदि सुख चाहिए तो घर को घर बनालो
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
"यदि अपने ही घर पर, अपने ही लोगों के बीच अनुकूलता, अपनत्व, प्यार, सम्मान और शुकून का अहसास न हो तब फिर दुनिया में तो यह सब खोजना व्यर्थ ही है, तबतो मात्र एक ही नियति है प्रतिकूलता, परायापन, प्रताड़ना, अपमान और क्षोभ बस !
यदि सुख चाहिए तो घर को घर बनालो !
घर एक ऐसा स्थान है जहां यह व्यक्ति अपने जीवन का अधिकतम समय व्यतीत करता है. यदि हमें घर पर सुख-शांति मिलने लगे तो हमारा बहुभाग जीवन तो सुखी हो ही जायेगा न ?"
हे भाई ! तू सुख और शुकून चाहता है न ?
नित प्रति यही तो खोजा करता है तू ! हर वस्तु में, हर व्यक्ति में, प्रत्येक स्थान पर.
पर क्या मिला ?
सुख नहीं मिला न ?
मिलता भी कैसे ?
तेरे सारे क्रियाकलाप तो व्याकुलता पैदा करने वाले हें तब उनमें से निराकुलता कैसे उत्पन्न होगी ?
हालांकि तेरी आकुलता और व्याकुलता के कारण तो सारे ब्रहम्मांड में ही व्याप्त हें पर हम दूर क्यों जाएँ, क्यों नहीं घर से ही शुरुवात करें.
क्योंकि उनका दुर्भाग्य मुझसे देख नहीं जाता जिन्हें घर में ही शान्ति नहीं मिलती, अपनों के बीच ही सुख नहीं मिलता.
हर व्यक्ति को एक सुखी और सुरक्षित घर चाहिए जहां वह निशंक रह सके, बेरोकटोक और वेपरवाह, स्वच्छंद और निराकुल.
एक ऐसा घर जहां उसकी ऊर्जा का शोषण न हो वरन उसे एक नई ऊर्जा मिले.
एक ऐसा घर जहां उसकी कमजोरियों का दुरूपयोग न हो वरन निराकरण हो.
एक ऐसा घर जहां उसके अभावों का तमाशा न हो उनकी पूर्ति हो.
एक ऐसा घर जहां उसे धिक्कार नहीं सम्मान मिले.
एक ऐसा घर जहां कोई अनुशास्ता और कोई अनुशासित न हो, जहां मात्र आत्मानुशासन हो.
एक ऐसा घर जहां सहिष्णुता हो और हर कोई एक दूसरे की अनुकूलता के लिए प्रयत्नशील हो.
एक ऐसा घर जहाँ उसकी भावनाओं का सम्मान हो.
विशाल सोच, द्रष्टिकोण और ह्रदय वाले महापुरुष तो सारी दुनिया के लिए इसी प्रकार की भावना रखते हें, उसके लिए प्रयत्नशील भी रहते हें पर हम दुनिया के लिए न सही अपने घर के लिए तो ऐसा कर ही सकते हें न?
घर के लिए का मतलब अपने लिए ही तो हुआ न क्योंकि हम भी तो उसी घर के एक अंग हें.
क्या हम स्वयं अपने लिए ही इतना अभी नहीं कर सकते हें ?
घर एक ऐसा स्थान है जहां यह व्यक्ति अपने जीवन का अधिकतम समय व्यतीत करता है. यदि हमें घर पर सुख-शांति मिलने लगे तो हमारा बहुभाग जीवन तो सुखी हो ही जायेगा न ?
हमारी भूल तब होती है जब हम अपने और पराये का स्वरूप नहीं समझते हें. अपने और पराये में अंतर नहीं करते हें. अपने और परायों के बीच व्यवहार की तुलना करने लगते हें.
ऐसा करेंगे तो क्या होगा ?
यदि अपनों से परायों का सा ही व्यवहार करेंगे तो दोनों में फर्क ही क्या रहेगा,अपनत्व कैसे रहेगा, अपने अपने कैसे रहेंगे ?
अरे भाई ! तेरे अपने तो हैं ही कितने ?
परायों की तो कोई कमी नहीं है. मात्र कुछ ही गिनेचुने लोगों को छोड़कर बाकी सभी पराये ही तो हें, सारी दुनिया ही तो पराई है.
तुझे परायों की तो कोई कमी रहने वाली नहीं है, पर यदि एक अपना कम हुआ तो अपनों का एक बहुत बड़ा भाग कट जाएगा.
यदि सुख चाहिए तो घर को घर बनालो
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
"यदि अपने ही घर पर, अपने ही लोगों के बीच अनुकूलता, अपनत्व, प्यार, सम्मान और शुकून का अहसास न हो तब फिर दुनिया में तो यह सब खोजना व्यर्थ ही है, तबतो मात्र एक ही नियति है प्रतिकूलता, परायापन, प्रताड़ना, अपमान और क्षोभ बस !
यदि सुख चाहिए तो घर को घर बनालो !
घर एक ऐसा स्थान है जहां यह व्यक्ति अपने जीवन का अधिकतम समय व्यतीत करता है. यदि हमें घर पर सुख-शांति मिलने लगे तो हमारा बहुभाग जीवन तो सुखी हो ही जायेगा न ?"
हे भाई ! तू सुख और शुकून चाहता है न ?
नित प्रति यही तो खोजा करता है तू ! हर वस्तु में, हर व्यक्ति में, प्रत्येक स्थान पर.
पर क्या मिला ?
सुख नहीं मिला न ?
मिलता भी कैसे ?
तेरे सारे क्रियाकलाप तो व्याकुलता पैदा करने वाले हें तब उनमें से निराकुलता कैसे उत्पन्न होगी ?
हालांकि तेरी आकुलता और व्याकुलता के कारण तो सारे ब्रहम्मांड में ही व्याप्त हें पर हम दूर क्यों जाएँ, क्यों नहीं घर से ही शुरुवात करें.
क्योंकि उनका दुर्भाग्य मुझसे देख नहीं जाता जिन्हें घर में ही शान्ति नहीं मिलती, अपनों के बीच ही सुख नहीं मिलता.
हर व्यक्ति को एक सुखी और सुरक्षित घर चाहिए जहां वह निशंक रह सके, बेरोकटोक और वेपरवाह, स्वच्छंद और निराकुल.
एक ऐसा घर जहां उसकी ऊर्जा का शोषण न हो वरन उसे एक नई ऊर्जा मिले.
एक ऐसा घर जहां उसकी कमजोरियों का दुरूपयोग न हो वरन निराकरण हो.
एक ऐसा घर जहां उसके अभावों का तमाशा न हो उनकी पूर्ति हो.
एक ऐसा घर जहां उसे धिक्कार नहीं सम्मान मिले.
एक ऐसा घर जहां कोई अनुशास्ता और कोई अनुशासित न हो, जहां मात्र आत्मानुशासन हो.
एक ऐसा घर जहां सहिष्णुता हो और हर कोई एक दूसरे की अनुकूलता के लिए प्रयत्नशील हो.
एक ऐसा घर जहाँ उसकी भावनाओं का सम्मान हो.
विशाल सोच, द्रष्टिकोण और ह्रदय वाले महापुरुष तो सारी दुनिया के लिए इसी प्रकार की भावना रखते हें, उसके लिए प्रयत्नशील भी रहते हें पर हम दुनिया के लिए न सही अपने घर के लिए तो ऐसा कर ही सकते हें न?
घर के लिए का मतलब अपने लिए ही तो हुआ न क्योंकि हम भी तो उसी घर के एक अंग हें.
क्या हम स्वयं अपने लिए ही इतना अभी नहीं कर सकते हें ?
घर एक ऐसा स्थान है जहां यह व्यक्ति अपने जीवन का अधिकतम समय व्यतीत करता है. यदि हमें घर पर सुख-शांति मिलने लगे तो हमारा बहुभाग जीवन तो सुखी हो ही जायेगा न ?
हमारी भूल तब होती है जब हम अपने और पराये का स्वरूप नहीं समझते हें. अपने और पराये में अंतर नहीं करते हें. अपने और परायों के बीच व्यवहार की तुलना करने लगते हें.
ऐसा करेंगे तो क्या होगा ?
यदि अपनों से परायों का सा ही व्यवहार करेंगे तो दोनों में फर्क ही क्या रहेगा,अपनत्व कैसे रहेगा, अपने अपने कैसे रहेंगे ?
अरे भाई ! तेरे अपने तो हैं ही कितने ?
परायों की तो कोई कमी नहीं है. मात्र कुछ ही गिनेचुने लोगों को छोड़कर बाकी सभी पराये ही तो हें, सारी दुनिया ही तो पराई है.
तुझे परायों की तो कोई कमी रहने वाली नहीं है, पर यदि एक अपना कम हुआ तो अपनों का एक बहुत बड़ा भाग कट जाएगा.
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